सामाजिक

वाहिका है वामाएँ

“महिला दिवस पर स्त्री विमर्श शोभा नहीं देता, जो पहचान का मोहताज नहीं ऐसे वंदनीय चरित्र की गाथा लिखनी है”
एहिक संग्राम में हर किरदार पर भारी नायिका के रेशम से भी रेशमी एहसास है, सीरे को छूकर देखो न कभी..
ऊँगलियों से बहती लालित्य की लाली बाकम्माल है, नखशिख ओज से भरी गुनों की खान है।
मखमली आवाज़ की मल्लिका के भीतर शक्तिशाली योद्धा की रूह बसती है,
हारती नहीं हौसलों का दामन थामें हर जद्दोजहद से जूझती है।
नारी की उनींदी आँखों में ख़्वाबों का जहाँ सुस्ताए पड़ा है
वक्त ने उसे रोक रखा है,
इजाज़त नहीं सपनों को छूने की..
दिनरथ पर दौड़ती योषिता अपनों के प्रेम पर हारी है।
दुआ ठहरी है लबों पर, आँखें प्रार्थना का पर्याय है, गेरुआ है हथेली, लब गुलाल, गेसू मेघ है रक्ताभ सी आबोहवा रखती है हरसू मौजूदगी उसकी।
सदियों से कोशिश करते थक गया मर्द पुरातत्वविद् बनकर नारी मन के भूगोल तक नहीं पहुँच पाया..
प्राचीन सभ्यताओं की भाँति सैंकडों एहसासों को रूह के भीतर दफ़न करते लबों की परतों पर मुस्कान मलकर जीती है।
वाहिका है वामाएँ, लौकिक बोझ के निशान देखे है कभी हर नारी की पीठ पर? तटिनी थकती नहीं,
निरंतर बहती है अपने आशियाने के पर्वत से गिरती आँगन में तुलसी बन ठहरती है।
चुटकी सिंदूर को यथार्थ समझते सन्यासिनी बन जाती है,
कर्तव्य का भोग परिवार की परवरिश के आगे लगाती है..सैंकडो घोड़े पर सवार होते हर समर जीत लाती है।
ईश की रचाई बेनमून कलाकृति है कामिनी, रतिनाथ को रिझाते रात को जश्न में बदलना जानती है,
भोर की बेला में आदित की पहली रश्मि से आलोक भी सजाती है..
मौन से चल जाए तो वाचा खर्च नहीं करती, हर हुनर में माहिर इशारे में तमाम  समझ जाती है।
लोरी गुनगुनाती ललना ममता का सार दिखती है…बच्चों पर आती आपदा देख माँ देवी का अवतार बन जाती है।
अभिलाषि नहीं देने में सुख समझती है, क्षीण होते डूबती है समुन्दर में सूर्य सी, फिर भी जल को नहीं छूती है..
अपनों की ख़ातिर उद्भव होती है, अपनों के लिए अस्त होती है,
खुद की हस्ती की परवाह नहीं अश्कों का दरिया पीती है।
वो ओरा है, वो स्त्रोत है, वो गंगा है, वो गति है, वो धूप है, वो बारिश है,
इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं,
“हर नारी के भीतर वेगवान उर्जा की पयस्विनी बहती है”
दमन की अधिकारी नहीं, सम्मान की हकदार नारी कुशाग्र बुद्धि का कम्माल है,
एक जीव को जन्म देने वाली कमज़ोर नहीं सांसारिक इमारत का मजबूत स्तंभ है।
फिर भी, सालों बीते चाहे सदियाँ कुछ नारियों की आज़ादी के किवाड़ बंद थे बंद है और बंद ही रहेंगे
नहीं भाता कुछ स्वामियों को वनिताओं का वनराईयों में विचरना,
भार्या के पैरों को जकड़ने वाली जंजीर आज भी उनके दिमाग में पड़ी है।
मत मनाओ कोई खास दिवस विरांगनाओं की शान में, महिला दिवस पर विमर्श की धूप वामाओं को नखशिख  जला रही है।
विमर्श का मातम नहीं मनाती एक भी नारी, पयोधर में वात्सल्य का घट लिए परिवार पर ममता की अनन्य धारा बरसाती है।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर