कविता

होलिका दहन की सार्थकता

आज रात होलिका दहन का मैं भी गवाह बना
शुभ मूहूर्त में पंडित जी ने होलिका का पूजन और
अग्नि प्रज्जवलित कर होलिका दहन किया।
कुछ पलों में ही ऊंची ऊंची लपटें उठने लगी
लपटों के बीच थोड़ी हलचल सी दिखने लगी।
मैंने महसूस किया कि लपटों के बीच
होलिका की आत्मा मुझे देख मुस्कराने लगी
ऐसा लग रहा था मेरी खिल्ली उड़ानें लगी।
मुझसे रहा न गया, मैं अपनी पर उतर आया
तेरी हिम्मत कैसे हुई हमारी हंसी उड़ानें की,
कहकर दांत पीसते हुए गुर्राया
तुझे नहीं फिकर है खुद को बचाने की?
ये कैसी बेशर्मी है, हर साल जलती है
फिर भी ठहाके लगा बेशर्मी से हंसती है
सब लाज शर्म जैसे घोलकर पी गई है
रस्सी जल गई पर बल अब तक नहीं गई है।
इतना सुन उसकी मुस्कान बदल गई
वह इठलाई और जोर का ठहाका लगाई।
फिर बड़े प्यार से अपने मन की बात बताई
मैं पापी , अभिमानी अनीति के साथ खड़ी थी
तभी तो इस तरह जलकर मरी थी,
मगर तब न मैं जली न मरी थी
सिर्फ पाप की गठरी से मुक्त हुई थी
मैं तो आज तक तभी से जल ही रही हूं,
कुछ कहने की कोशिश तब से कह रही हूं।
तुम हर साल मुझे जलाकर खुश होते हो
मगर क्या कभी तनिक विचार भी करते हो?
हर साल जगह जगह मुझे जलते देख
क्या कुछ मनन चिंतन भी करते हो?
या आते हो और मेरा उपहास कर
बस! दूर से हाथ सेंक निकल जाते हो।
कभी एक अवगुण भी मुझमें भस्म कर देते
पाप और अनीति का बोझ थोड़ा कम कर लेते
मेरी इस जलती चिता से कुछ तो सबक लेते
अपनी एकाध बुराइयां मुझमें भस्म कर देते
धरती मां के सीने से पाप का बोझ थोड़ा कम कर देते।
तो देश, समाज और खुद तुम्हारा भी भला हो जाता
होलिका दहन का तनिक उद्देश्य तो पूरा हो जाता
सदियों से साल दर  साल मेरे जलने का रहस्य
यदि तुम सबको तनिक भी समझ में आ जाता
सारी बुराइयों का अब तक नामोनिशान मिट जाता
तब शायद मेरा हर साल जलना भी सार्थक हो जाता।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

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