सामाजिक

हर बार बेटा बहू ही गलत नहीं होते

इस कलयुग में संयुक्त परिवार विभक्त होते छंट रहे है, इस विडम्बना के लिए  किसको दोषी समझा जाए? ज़्यादातर लोग बेटे-बहू को ही उस बात के लिए दोषी ठहराएँगे। लोगों और समाज की बात जाने दें हर कथाकार, प्रवचन कार या बड़े-बड़े भाषण देने वाले प्रबुद्ध प्रवक्ता भी आज की जनरेशन पर ही दोष का पिटारा रख देते है, जो कि ये पूरा सच नहीं है। हर बात के लिए नयी पीढ़ी पर इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं है। दो पीढ़ी के विचारों में बेशक अंतर तो रहेगा, क्योंकि कुछ माँ-बाप नई जनरेशन के विचार और आधुनिक जीवनशैली अपनाने को या स्वीकार करने को तैयार ही नहीं। अपने विचार बच्चों पर थोपने की कोशिश में बच्चों को अपने से दूर कर लेते है। एक सोच के दायरे से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। उनको लगता है कि बच्चों को परंपरागत चली आ रही विचारधारा का अमल करते उस हिसाब से ही जीना और रहना चाहिए। या तो खुद को हर काम में परफ़ेक्ट समझते बच्चों से यही अपेक्षा रखते है कि जैसे हम है वैसे ही बच्चों को होना चाहिए। हर काम उनके ही हिसाब से होना चाहिए।
वैचारिक मतभेद के चलते बेटे की शादी के बाद कुछ माँ-बाप अलग ही रहना पसंद करते है। पहले तो बहू को अपने घर का सदस्य मानने में और स्वीकार करने में ही समाज को सदियाँ लग जाएगी। बहू को जब तक पराये घर से आया पराया सदस्य समझा जाएगा, तब तक परिवार में एकता का अभाव रहेगा ही रहेगा। क्यूँ बहू के उपर अपनी बेटी सा भाव उत्पन्न नहीं कर पाते? क्यूँ बहू की तकलीफ़ दिखाई नहीं देती? क्यूँ बहू के उपर भरोसा नहीं कर पाते? माँ-बाप क्यूँ ऐसा सोचते है कि जब तक हाथ पैर चलते है तब तक हम अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जिएँगे और बच्चे अपने हिसाब से। जब शरीर साथ नहीं देगा तब जाएँगे बच्चों के साथ रहने। सेवा नहीं करेंगे तो कहाँ जाएँगे। माता-पिता की ये मानसिकता बिलकुल गलत है। क्यूँ बेटे बहू के विचारों के साथ सामंजस्य बिठाकर नहीं रह सकते? परिवर्तन संसार का नियम है, क्यूँ नयी विचारधारा के साथ कदम मिलाकर आधुनिकता को अपना कर बच्चों के साथ हँसी-खुशी नहीं रह सकते। एक समझ और let go की भावना के साथ जुड़े रहेंगे तभी संयुक्त परिवार में शांति का माहौल बना रहेगा। जिसके अन्न जुदा उसके मन जुदा। प्रेम साथ रहने से बढ़ता है अलग रहने से दूरियां बढ़ती है। एक छत के नीचे रहोगे तभी एक दूसरे को अच्छे से समझ पाओगे। वरना कभी-कभी बच्चों के घर जाओगे तो बच्चों को भी मेहमान सा महसूस होगा और माता पिता को भी वही भाव उत्पन्न होगा की किसीके घर मेहमान बनकर गए है। अलग रहकर फिर फेसबुक पर बेटे बहू की निंदा करने वाली पोस्ट ड़ालकर ये जताना कितना उचित है? कि हंमेशा बेटा-बहू ही गलत है। कभी अपनी मानसिकता पर भी विमर्श करना चाहिए कि हम कहाँ गलत है।
दोनों को एक दूसरे की जरूरत होती है। माँ-बाप की तंदुरुस्ती ताज़िंदगी अच्छी नहीं रहने वाली। कभी कभार तबियत खराब हुई तो बच्चें साथ होंगे तो सहारा मिलेगा, वरना पड़ोसी या रिश्तेदारों का मोहताज होना पड़ेगा। आजकल पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते है, अगर बहू भी नौकरी करती है तो क्यूँ माँ-बाप ये नहीं सोचते कि चलो बेटा-बहू दोनों काम से बाहर रहते तो साथ रहकर घर को संभालने में, और पोते-पोतियों की परवरिश करने में हम बच्चों को मददरुप हो सकेंगे। या बहू प्रेगनेंट हुई या और कोई मुसीबत बच्चों पर आई तो कोई बुज़ुर्ग घर में होगा तो देखभाल हो जाएगी और अनुभव के ज़रिए हर मुसीबत में बच्चों को सही राह दिखाकर सहारा बन सकते है। क्यूँ बच्चों की तकलीफ़ में साथ देने की बजाय अपनी मनमानी करते जब हाथ पैर नहीं चलेंगे तब साथ रहने जाएँगे ऐसा सोचकर दूरी बना लेते है। ये रिश्ता तो स्वार्थी हुआ न। अगर बच्चों से सेवा की अपेक्षा है तो थोड़ा अपना फ़र्ज़ भी समझना चाहिए। सिर्फ़ बच्चों की विचारधारा के अगेंस्ट पोस्ट ड़ालकर बच्चों को मुज़रिम करार देने से पहले अपने आचरण पर और अपने विचारों और गलती पर भी गौर करना चाहिए कि हम कहाँ गलत है। अगर प्यार और सम्मान पाना है तो पहले देना सिखना चाहिए। और प्रेम का प्रतिसाद प्रेम से ही मिलता है। बहू-बेटे की बुराई करने से आप खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारकर अपने से दूर कर रहे है। इसलिए बच्चों पर दोषारोपण करने से पहले अपनी आदतें, अपने विचार और अपनी जीवनशैली सुधार कर तटस्थ रहकर सोचेंगे तो समझ में आएगा कि हर टूटते परिवारों के पीछे सिर्फ़ बेटे-बहू की गलती नहीं होती, कुछ-कुछ अभिभावक भी झक्की वलण अपनाकर बच्चों के साथ तालमेल बिठाने में असफ़ल होते है।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर