कविता

तुम गैर कहां लगते हो

तुम्हें ऐसा क्यों लगता है तुम गैर हो
तुम तो अपने से लगते भर नहीं
तुम तो अपने ही हो,
हमारे रिश्ते गैर हो सकते हैं
पर वास्तव में हैं नहीं
क्योंकि हमारे रिश्तों की डोर भावनाओं से जुड़े हैं
हमारे रिश्तों को मजबूत पहचान दे रहे हैं।
सबको पता है कि आज जब खून के रिश्ते
अपने और अपनों से दूर हो रहे हैं,
अपनों की आड़ में अपनों का
अपने ही आज खून कर रहे।
अब तो अपनों से भी डर लगने लगा है
गैर ही मजबूत सहारा बन रहा है
जब अपने ही रिश्तों का अपमान कर रहे हैं
तब गैर ही मुश्किल घड़ी में साथ दे रहे हैं
रिश्तों को नये आयाम दे रहे हैं,
अपने जब तब आंँसुओं में ढकेल रहे हैं
जो गैर हैं वे ही आगे आ आँसू पोंछ रहे हैं
अपने और गैरों की खाई को पाट रहे हैं
रिश्तों की कमी को दूर कर रहे हैं
ये और बात है कि
वो अपने लिए नहीं हमारे दुख खुद पर लेकर
ऊपर से मुस्कुरा रहे हैं
अंदर से टूटकर बिखरने से बच रहे हैं
फिर भी इसलिए हंस रहे हैं
कि कहीं हम न रो दें।
फिर हम कैसे कह दें कि तुम मेरे अपने नहीं हो,
गैर कहकर तुम्हारी आँख में आंँसू कैसे भर दें
या कैसे कह दें कि तुम मेरे अपने नहीं हो।
दुनिया ये जान लो तुम मेरे अपने हो
तुम कोई गैर नहीं तुम तो सदा अपने ही लगते हो।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921