कविता

गौमाता की याचना

आज सुबह सुबह नवरात्रि पर्व पर
मंदिर में मां की पूजा आराधना चल रही थी
धूप दीप आरती हो रही थी
घंटे घड़ियाल शंख बज रहे थे
भक्तों का रेला मंदिर का माहौल
भक्ति की शक्ति का एहसास करा रहा था।
मंदिर के बाहर से एक अदद गऊ माता
मां की मूरत को टुकुर टुकुर देख रही थी
उनके आंख से बहते आंसू दर्द भरी सूरत
जैसे आदिशक्ति से कुछ कह रही थी
शायद अपनी पीड़ा मौन स्वर में कह रही थी
उसकी सूरत से उसकी भावना का मौन स्वर
शायद कुछ यह कह रहा था
हे मां! जगत जननी मां! तू भी मां है
तो मैं भी तो एक मां ही हूं
तू ही बता तुझमें मुझमें फर्क क्या है
बस यही न कि तू जगत माता है
मैं धरती के इंसानों की गऊ माता हूँ
तू पत्थर होकर भी पूजती है,
मैं प्राणवान होकर पूजती हूं
और गौ माता कहलाते हूँ
पर अपने प्राण बचाने को छटपटाती हूं
तू जगत जननी है तो मेरी भी पुकार सुन
पर शायद तू ये नहीं जानती
मैं पूजी जाती हूं हलाल भी की जाती हूँ
बेदर्दी से मुझे काटा भी जाता है
मेरे मांस को पकाकर निवाला बना
इंसानी उदर में भी उतारा जाता है।
हिंसक जानवर मेरा शिकार करते हैं
वे मुझे मां भी नहीं कहते
मेरे दूध को भी नहीं लजाते
मेरे सम्मान और अस्तित्व के लिए खतरा भी नहीं बनते
ये अलग बात है या सिर्फ अपवाद समझ लो
कभी कभार विवशता में मुझे मारकर
मेरा मांस नोच नोचकर
अपने उदर की छुधा भर मिटाते हैं।
पर मेरे अपने बच्चे जो मुझे माँ कहते हैं
अपने स्वार्थ वश मेरी पूजा भी करते हैं
पर आज के आधुनिक वातावरण में
मुझे अपने साथ रखकर पालन पोषण
और देखभाल भी नहीं करना चाहते।
जब तक मैं दूध देती हूं तब तक ही मैं
पाली पोसी दुलरायी जाती हूँ,
उसके बाद सड़कों पर छुट्टा छोड़ दी जाती हूँ
तब फेंके भोजन, सड़ी गली सब्जियों,फल फूल
कूड़े करकट, गंदे पदार्थों और प्लास्टिकों से पेट भरती हूँ,
बस जैसे तैसे जीती हूँ
किसी वाहन चपेट में यदि आ गयी तो
बिना इलाज के तड़पती,
दर्द, सड़न, मवाद संग मक्खियों का प्रहार सहती हूं
और एक दिन घिसटकर घिसटकर मर जाती हूं
किसी की दया मिली तो दफन हो जाती हूं
वरना चील, कौओं, कुत्ते बिल्लियों का आहार बन
अपना अस्तित्व खो देती हूं।
इतना तक ही हो तो तकलीफ नहीं होती
गौ तस्करों की भेंट चढ़ गई तो
भेट भरने के भी लाले पड़ जाते हैं
बुचड़खानों में हमारे बड़े सौदे किए जाते हैं
मेरे मांस, हड्डियों, चमड़ों के व्यापार से
बहुतों के घर धन, दौलत  से भर जाते हैं।
इतना ही नहीं मेरे नाम पर धर्म का खेल भी
आजकल खूब खेला जाता है
मेरे हिंदू मुस्लिम बच्चों को आपस में लड़ाया जाता है
राजनीति की आड़ लेकर
एक दूसरे को खूब उकसाया जाता है
दंगा फसाद, हिंसा, लूटपाट , धार्मिक उन्माद
जगह जगह भड़काया जाता है
एक दूजे का एक दूजे से ही कत्ल कराया जाता है
मेरी आड़ में सांप्रदायिकता का झंडा फहराया जाता है
मुझे खून के आंसू रुलाया जाता है।
हे जगत जननी! क्या ये सब तुझे नजर नहीं आता
ये बच्चे अपनी ही मां के खून के कब तक रहेंगे प्यासे?
क्या तेरे मन में इसका भी ख्याल नहीं आता?
अब तो तू ही मेरी पुकार सुन, मेरा भी उद्धार कर
हे जगत कल्याणी! मुझ पर भी तू दया कर
कुछ कर या न कर बस तू इतना कर दें
चाहे आशीर्वाद दे या श्राप ही दे दें
जैसे भी बस इतना सा उपकार कर दें
हमारा दर्द, हमारी पीड़ा, व्यथा को समझ
इस वसुंधरा में हमारा भी मान दें
हे जगत जननी! इस जननी को भी पीड़ा मुक्त कर दें
भव बंधन से अब आजाद कर दें,
जगत जननी होने का तू कर्तव्य तो निभा माते
मेरी इतनी सी याचना भी स्वीकार कर ले।
हे मां!जगत के हर प्राणी का, तू कल्याण कर दे
अपने होने का मां हमें भी प्रमाण दे दे।

 

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921