नि:शुल्क की अपेक्षा क्यूँ
समाज में हमारा व्यवहार लेन-देन से चलता है। “एक हाथ दो, एक हाथ लो” हम बाज़ार में कुछ खरीदने जाते है तो पैसों के बदले चीज़ मिलती है, वैसे ही अगर नाम कमाना है तो मेहनत लगती है। मेहनत बेचोगे तो बदले में पैसा या नाम पाओगे। यहाँ ये समा बाँधने का मकसद इतना ही है कि जब हम सामाजिक व्यवहार की इस परिभाषा को जानते है! तो कुछ काम को लेकर दोगली मानसिकता क्यूँ? क्यूँ किसीसे कुछ नि:शुल्क या मुफ़्त में मिलें ऐसी अपेक्षा रहती है?
आजकल साहित्य जगत में कुछ लोग संपादक और पब्लिशर्स की नकारात्मक छवि पेश कर रहे है। कहते है कि संपादक और पब्लिशर्स हाट खोलकर बैठ गए है साहित्य को कमाने का ज़रिया बना रखा है। क्यूँ भै आपको संपादक और पब्लिशर्स की जरूरत नहीं? कौन ऊँगली थामेगा आपकी रचनाओं की? रचनाएँ छपवानी है, नाम कमाने है तो लेखन पब्लिश तो करवाना पड़ेगा; पर उनको लगता है साझा संकलन और एकल किताबें प्रकाशित करवाकर प्रकाशन वालें न जानें कितने धनवान बन रहे है। दरअसल बात कुछ और है। आज बात करते है साहित्य जगत में लेखकों, संपादकों और पब्लिशर्स के बीच चल रही नूराकुश्ती की। आज के दौर में लेखकों का तांता लगा है और हर कोई अपनी रचनाएँ, लेखों, कहानियों को किताब का रुप देकर पब्लिश करवाना चाहते है। या तो जो अपनी एकल किताब छपवाने में सक्षम नहीं वो साझा संकलनों से जुड़ कर अपना लेखन पाठकों तक पहुँचा रहे है। संकलन से जुड़ना सबको है, अपना नाम भी घर-घर पहुँचाना है और साहित्य जगत में खुद को प्रस्थापित भी करना है पर…नि:शुल्क।
साझा संकलन से जुड़ने के बाद जब संपादक या पब्लिशर्स द्वारा लेखकों को एक प्रति खरीदने के लिए बोला जाता है, तब लेखक ये कहकर साफ़ मुकर जाते है कि किताब खरीदकर क्या करेंगे? या तो स:शुल्क छपवाने का सुनते ही लेखकों की आँखों की पुतलियाँ बाहर निकल आती है। कुछ लेखक अपनी तीन चार रचनाएँ जिस किताब में छपी है उस किताब को खरीदने के लिए 100/150 रुपये भी खर्च करना नहीं चाहते। बस रचनाएँ छप गई बात ख़त्म। अब सोचिये जब लेखक खुद जिस किताब में उनकी रचनाएँ छपी है उसे खरीदने से कतराते है! तो मार्केट में आने के बाद दूसरे क्यूँ उनका लिखा खरीदने में और पढ़ने में उत्सुकता दिखाएँगे? अरे कम से कम अपने लेखन का प्रमोशन करने के लिए ही दो चार प्रति अपने पास रखनी चाहिए। रिश्तेदारों को अपनी किताब, अपना लेखन उपहार में देने के लिए भी किताबें अपने पास रखनी चाहिए। लेखक को अपनी हर कृति अपने बच्चों की तरह प्यारी होनी चाहिए। और खुद के लिए 100/150 रुपये की एक प्रति इसलिए भी लेनी चाहिए ताकि किताब देखकर उनकी आने वाली पीढ़ी को ज्ञात तो रहे की उनके परिवार में कोई लेखक भी था। 100/150 रुपये के लिए क्या अपना लिखा अपनों के लिए भी सुरक्षित नहीं रख सकते?
शिपिंग खर्च सहित 150 रुपये में किताब देने पर भी लेखक किताब लेने से कतराते है। किताब से कोई इतना मुनाफ़ा नहीं होता! न संपादक पब्लिशर्स के बंगले बन जाते है। इतनी राशि में मुश्किल से एक बुक तैयार होती है और शिपिंग खर्च भी आ जाता है। बाकी पब्लिशर्स को भी बुक छापने में खर्च तो लगता है। मुफ़्त में तो हम किसीको छापने के लिए नहीं बोल सकते? और मुफ़्त में कोई क्यूँ छापे? जब हम खुद अपनी रचना जिस किताब में छपी है उसे खरीदने को तैयार नहीं होंगे तो मुफ़्त में छाप दीजिए ऐसा प्रकाशन को कैसे बोल सकते है? पब्लिशर्स को भी अपना घर-परिवार चलाना होता है, उनके नीचे भी कारीगर काम करते है उनको पगार देनी होती है, वो क्यूँ सेवा करेंगे? लेखक लिखने की मेहनत करते है, तो संपादक सहजने की और पब्लिशर्स छापने की; जिसके बदले संपादक और पब्लिशर्स लेखक को एक प्रति खरीदने के लिए कहते है तो लेखकों का जवाब होता है कितनी किताब खरीदें, कहाँ रखेंगे? अरे भै किसी और का लिखा खरीदने को नहीं बोल रहे आपकी अपनी मेहनत ढ़ली है पन्नों पर उसका सम्मान तो कीजिए। पब्लिशर्स लेखक का नाम घर-घर तक पहुँचाते साहित्य जगत में प्रस्थापित करते है, उस सम्मान के बदल 150 रुपये देने में इतनी कंजूसी क्यों? पुस्तक प्रकाशित होकर लेखक को एक पहचान देती है, और ये पहचान दिलाने में मुख्य भूमिका होती है प्रकाशक की और उसे लोकप्रिय बनाते है पाठक। पर इस व्यवहार से ज़्यादातर लेखक नाराज़ क्यूँ है? बाज़ार में हम कुछ खरीदने जाते है तो कोई मुफ़्त में कुछ नहीं देता, वहाँ भी एक हाथ ले, एक हाथ देते पैसों का व्यवहार होता ही है। तो फिर अपनी रचनाएँ छपवाने के लिए मामूली राशि दे दी तो क्या गलत है? कौनसी हर किताबें बेस्ट सेलर साबित होती है! जो संपादक और पब्लिशर्स उसे कमाने का ज़रिया बना लेंगे। सबको अपना घर परिवार चलाने का हक है।
हर लेखक इस निम्न मानसिकता से उभरकर सोचेंगे तभी ये व्यवहार पारदर्शी बनेगा।
— भावना ठाकर ‘भावु’