पत्नी की लात-कथा
पत्नी के साथ पहली – पहली रात को बतियाए या न बतियाए ; हाँ, कुछ महापुरुष उस महारात को बड़े ही लतियाए ! लतियाते – लतियाते वे देश के महाकवि बन पाए। पत्नी की लात की भी बड़ी महिमा है; मुदित (मुंदे हुए) ब्रह्मरंध्र को भी खोल देने वाली है यह पवित्र लात ! इसीलिए हमने आज उठाई है यह बात। गूँगी जिह्वा से अभूतपूर्व बोल देने वाली। बंद बुद्धि रंध्र को भी खोल देने वाली। अपने कर्तव्य का बोध तोल देने वाली। जिस डाली पर बैठे हुए थे ,उसी डाली को कुल्हाड़ी के प्रहार से काटने वाले कालिदास और भटके हुए तुलसीदास को महाकवि बनाने वाली विद्योत्तमा और रत्नावली की लात- कथा को कौन नहीं जानता ?यह पत्नी की लात की ही महिमा है कि वे रातों – रात एक आम इंसान से महाकवि बन गए।प्रणय को छोड़ कर वे काव्य के उपवन गए।
आज भी लोग रातों – रात महाकवि न सही ; कवि तो बन ही जाते हैं।आम आदमी के लिए वे बिना फलों वाली डाली की तरह तन जाते हैं। अब मुझे क्या पता कि गुपचुप पत्नी की लात खाते हैं और जमाने को नहीं बतलाते हैं कि यह सब पत्नी की लात की माया है। जो उनके ब्रह्म रंध्र में महाकवि उतर आया है।उनकी हर रचना में लात , लात और लात का प्रपात बरपाया है।
रातों – रात बने हुए कवि की ख्याति से मेरा मन बड़ा ही मुरझाता है।कैसे कोई एक रात में महाकवि बन जाता है।
कवि बन जाने का वास्तविक रहस्य हमें नहीं बताता है।बस मेरे लिए तो वह ईर्ष्या का सुपात्र बन जाता है।भला हो उस कोरोना काल का जिसने बैठे बिठाए ठलुओं को कवि बना दिया।ये बात अलग है कि उन्हें भाषा ,वर्तनी, छंद,छंद -विधान,अलंकार, लिंग बोध, वचन, व्याकरण आदि का ज्ञान नहीं। बस उनके मतानुसार वे अपने दिल के भावों को बहाने में कविता के बहाने अपने को कुशल पाते हैं। यदि कोई उन्हें समझाए बताए तो उसकी भी न सुनते हैं ,न मान पाते हैं। बस अपनी एक अलग ही ढपली का राग अलापते हैं।
इधर हम भी एक हैं।जो साठ वर्षों से अपने ही तालाब में टरटराते भेक हैं।चिड़ियों की तरह नित्य का कमाना,नित्य का खाना।अपने को महाकवि तो क्या कवि भी कहने में सकुचाते हैं और वे नए- नए उपनामों से निज शीश पर स्वयं सेहरा सजाते हैं।कोई ‘प्रज्ञा’ है तो कोई ‘प्रवीण’ है; कोई ‘ कुशल’ है तो कोई काव्य का ‘नीड़ ‘है।कोई ‘बहार’है ,’मल्हार ‘है ; कोई जेठ मास की लरजती ‘फुहार ‘ है।इसी प्रकार मौन, खामोश, सोम,कनक, निर्मल, विमल, पथिक,यश, प्रांजल,मेघ,बादल, विज्ञ, महक ,ख़ुशबू, शुभ आदि नाम और उपनाम धारी कवि कवयित्रियों का भरापूरा जगत है। मुखपोथियों ,इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐपियों की मिलीभगत है।रातों- रात के चमत्कारों की भी बड़ी जुगत है।
एक महत्त्वपूर्ण बात और।करके देखिए न कुछ गौर।कवियों के भी बड़े -बड़े ,बढ़े -चढ़े, अगड़े -पिछड़े ‘गिरोह’ हैं।अब मैं यह तो नहीं कहता कि चोरों-डाकुओं जैसी गिरोहबन्दियाँ हैं।रंग -रंग के जिनके आधार हैं। कौन कहता है कि ये कवि गिरोह निराधार हैं? इनके भी लुके -छिपे आकार हैं।ये अपनी- अपनी अभिजात्यता प्रदर्शन के लिए लाचार हैं। इनका भी अपना -अपना विशेष खुमार है।नहीं ,नहीं ये मत कहिए कि ये यश लिप्सा के बीमार हैं! यदि हों भी तो उतने भी यहाँ तीमारदार हैं।
अब कवियों की तीमारदारी की बात आई है तो आई- गई तो नहीं हो सकती।चाहे मार हो ,बीमार हो या काव्यत्व का बुखार हो! तीमारदारी का भी अहम योगदान है! कोई तीमारदार गदगुदाता है, तो कोई तेज इंजेक्शन चुभाता है; भले ही सामने वाला उसे सहन नहीं कर पाता है। कभी -कभी तो वह ऐसी अदृश्य जगह ठोक देता है,कि वह मौन आह भर कर रह जाता है। करे भी तो क्या ? वह यह सोचकर स्वीकृति में सिर हिलाता है कि इससे उसे लाभ ही होने वाला है। खुलकर मना भी नहीं कर पाता। इसकी एक वजह यह भी है कि खुलेआम सुई घोंप देना भी तो ठीक नहीं है।पर क्या किया जाए जब खुले चबूतरे पर लगें कैंप में दिखाओगे तो इंजैक्शन भी खुले में ही लगेगा। वहाँ रंग -बिरंगा पर्दा कहाँ धरा है?जो कोई देख न पाए!
अंत में यही कहूँगा कि मनुष्य होना भाग्य है तो कवि होना सौभाग्य है और महाकवि होना सहस्र भाग्य है।अब ये अलग बात है कि वह आदि कवि वाल्मीकि की तरह क्रोंच युगल की विरह वेदना जन्य हो, अथवा पत्नी की लात -प्रहार जघन्य हो।बस कवियों के दरबार में अनुमन्य हो।पर्दे की लात और वेदना की बात कौन जानता समझता है?बस तीर में तुक्का ,धुएँ में धक्का आना चाहिए।सिद्ध यही हुआ कि कवि का जन्म केवल आह से ही नहीं होता, पत्नी की उलाहना भरी लात से भी होता है। नहीं मानें तो इतिहास के पन्ने पलट कर देख लीजिए।
इति पत्नी – लात -कथा समाप्यते!