गीत
पहले ढोया स्वयं कोख में,
काँधे पर वह अब ढोती है,
माँ की ममता।
सह लेती है सब उलाहना,
सभी कष्ट वह तन पर झेले,
अला-बला को दूर हटाए,
सिर पर दुनियादारी ले ले,
पीड़ा नहीं व्यक्त करती है,
माँ की ममता!
गोदी शैशवकाल लिटाए,
झेली है हर द्वद्व अकेली,
खाली हाथ जेब भी खाली,
कैसी है रचना अलबेली!
पहुँची-कंगन- चूड़ा-चूड़ी,
माँ की ममता ।
काँधे पर है बोझ समय का,
बगल दबाए लंबी झोली,
चमके दाँत श्वेत मोती-से,
लौंग नाक में छोटी भोली,
कानों में है कुंडल पहने,
माँ की ममता।
माला गले अँगूठी स्वर्णिम,
लाल रंग की शोभित बिंदी,
मंगलसूत्र गले में हँसता,
बोले ब्रज की टूटी हिंदी,
माँ तो माँ है ! क्या बतलाएँ?
माँ की ममता।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’