कविता

बादल

बड़े ही बदचलन
और बदमिजाज होते हैं
बादल,
जब कभी लोग होते हैं आतुर
सूरज या चँदा दर्शन के
तब सायास ढक लेते हैं
अपने पर फैलाकर
और दे देते हैं सबूत
अपने सठियाये हुए दंभ का।
सूरज, चाँद और तारे
चलते रहे हैं युगों-युगों से
अपने नियत रास्तों पर
पर इन बादलों का
कोई भरोसा नहीं,
खुद पर भी विश्वास नहीं होता इन्हें
कभी ये खुद भटक जाते हैं
कभी हवाएँ भटका देती हैं,
और कभी
उल्का पिण्डों की संगत पाकर
भुला बैठते हैं अपने आप को,
इसी बदचलनी के चलते
बादल
खोते जा रहे हैं अपनी आँखें,
अब नहीं दीखता इन्हें
धरती का विराट कैनवास आसानी से
इसीलिए आत्म नियंत्रण खोकर
अनचाहे बरस जाते हैं नग्न होकर,
संवेदन खो चुके बादलों को
अब अहसास भी नहीं होता
उनकी जरूरत-गैर जरूरत का,
फितरती बादलों की करतूत से
दल-दल हुई धरती भी
अब मान गयी है
बादल बादल नहीं रहे
बदचलन, बेशर्म
और बेदम हो गए हैं।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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