सुमन का अंतर्मन
एक शाम अलसाई सी
कभी व्यथित कभी हर्षायी सी
जैसे छिटक डाली से फूल
हर एक पल में मुरझाई सी|
कभी बन गजरा इठलाती
कभी प्रभु के शीश इतराती
समझे ना कभी कोई व्यथा
हर पल सर कलम कर दी जाती|
बीज से पल्लवित हो खिला सुमन
शाखों पर भ्रमण करते गुंजन
कैसे छुपाऊं उन्हें अपने पाश में
कैसे मिलेगा उन्हें मकरंद|
बस यही है मेरी कहानी
पल दो पल की है जिंदगानी
खुशबू ही है हमारी पहचान
है बगिया मंदिर महकानी|
सींच तुमने किया पल्लवित
चमन सारे हो रहे सुभाषित
तेरा हक है पूरा हम पर
खुश हो तू तो हो जाती पुलकित|
तूने तो बढ़ाया सदा मेरा मान
हर जगह मिला मुझे सम्मान
शहीदों पर जब की जाती अर्पित
उसका होता हमे बड़ा अभिमान|
— सविता सिंह मीरा