कविता

सुमन का अंतर्मन

एक शाम अलसाई सी 

कभी व्यथित कभी हर्षायी सी 

जैसे छिटक डाली से फूल 

हर एक पल  में मुरझाई सी| 

कभी बन गजरा इठलाती 

कभी प्रभु  के शीश इतराती 

समझे ना कभी कोई व्यथा 

हर पल सर कलम कर दी जाती| 

बीज से पल्लवित हो खिला सुमन 

शाखों पर भ्रमण करते गुंजन 

कैसे छुपाऊं उन्हें अपने पाश  में 

कैसे मिलेगा उन्हें  मकरंद| 

बस यही है मेरी कहानी 

पल दो पल की है जिंदगानी 

खुशबू ही है हमारी पहचान 

है बगिया मंदिर महकानी| 

सींच  तुमने किया पल्लवित 

चमन सारे हो रहे सुभाषित 

तेरा हक है पूरा हम पर 

खुश हो तू तो हो जाती पुलकित| 

तूने तो बढ़ाया सदा मेरा मान 

हर जगह मिला मुझे सम्मान 

शहीदों पर जब की  जाती अर्पित 

उसका होता हमे बड़ा अभिमान| 

— सविता सिंह मीरा 

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]