कहानी

उफ़! क्या गर्मी है?

ब्रजेश कुमार पन्द्रह-बीस बरस से लकड़ी का व्यापार करता है। पहले दूसरों के टिम्बर में लकड़ी को चीराता और लकड़ी मिस्त्री को बेच देता था। अब अपना टिम्बर है। अपनी गाड़ी है, ऑडर मिलते ही भेज देता है। ये आज से दस वर्ष पहले मोटरसाइकिल से पेड़ खरीदने गाँव-गाँव जाता था, अब कार से।
जेठ माह में ब्रजेश पेड़ का सौदा करके घर लौट रहा है। अचानक बीच रास्ते में कार ऑन बैलेंस होने लगता है। तुरंत कार रोक लेता है। कार से उतरा तो ऐसा लगा, मानो सिर के ऊपर आग गिरा। वह बिना विलंब किये, कार के अंदर प्रवेश करता है। कार में एसी चल रहा था। कार में बैठकर बटल का पानी पी लेता है। फिर अंदर से ही इधर-उधर नजर दौड़ाने लगी। लेकिन आस-पास कोई पेड़ नजर नहीं आती है। फिर सिर में रूमाल बांधकर कार से बाहर निकलता है। कार का पिछला टायर पंचर हो गया है। ब्रजेश फिर कार के अंदर बैठकर एक कार मैकेनिक को फोन करता है। मैकेनिक अभी आने से साफ माना कर देता है। ब्रजेश के बार-बार आग्रह करने पर कहता है, ”मैं अभी किसी भी हालत में नहीं आ सकता हूँ। अभी डेढ़ बजे हैं। मैं चार बजे के बाद ही आ सकता हूँ।“
”तू चाहे तो दोगुना पैसा ले लो। लेकिन आ जाओ।“ ब्रजेश
”पैसा ही सब कुछ नहीं है। अभी बाहर लू चल रही है।“
”किसी दूसरे मैकेनिक को ही भेज दो।“
”अभी कोई जाने को तैयार नहीं है। यदि मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रही है तो आप ही बात कर लीजिए।“ कहता एक मैकेनिक को फोन थमा देता है।
”हेलो“ दूसरा मैकेनिक बोलता है।
”भाई, तुम आ जाओ। मैं बूरी तरह से फंस गया हूँ। एक सुनसान जगह में, जहाँ दूर-दूर तक कोई आदमी नजर नहीं आ रही है और न कोई पेड़-पौधा ही। प्लीज़ आ जाओ। चाहे तुम जितना पैसा ले लो। दोगुना, तीन गुना या चार गुना……………।“
”भैया, अभी पृथ्वी तावे सा गर्म है। मैं नहीं आ सकता हूँ। चाहे आप दस गुना ही पैसा क्यों न दे दो।“
”मैं अब क्या करूँ?“
”मेरी राय मानो तो आप कार को धीरे-धीरे चलाकर एक-आध किलोमीटर तक ले जा सकते हैं। जहाँ कोई छायादार पेड़ दिखे, वहाँ कार को खड़ा करके चक्का बदल लेना। यदि समझ में नहीं आये तो फिर फोन करना।“
”अच्छा ठीक है।“ कहता ब्रजेश फोन कट करता है। फिर कार को स्टार्ट करके जाने लगा। एक बरगद पेड़ की छाया में ले जाकर खड़ा किया और कार से बाहर निकला। डिक्की से स्टेपनी के साथ चक्का खोलने का सामान निकाल लेता है। पंचर वाला चक्का को खोलने लगा। दो मिनट में पसीना से स्नान कर जाता है। खड़ा होकर ललाट का पसीना पोंछता हुआ कहता है, ”उफ़! क्या गर्मी है? हालत खराब हो गयी। आज किस्मत ही खराब है…।“
”अरे! व्यापारी पेड़ को कटवाओगे और पेड़ नहीं लगवाओगे तो क्या होगा?“ एक आवाज आती है। शायद बरगद पेड़ से आयी या ब्रजेश की आत्मा से। ये कह पाना असंभव है।
”कौन बोला? तू कौन है? कौन है?…?“ ब्रजेश
”मैं कौन हूँ? ये सब छोड़, तुझे आज पेड़ की छाया की आवश्यकता क्यों पड़ी। तू तो केवल पेड़ कटवाने पर तुला रहता है।“
”आज अचानक बीच रास्ते में मेरी गाड़ी का टायर पंचर हो गया। वरना, मुझे पेड़ की छाया की आवश्यकता नहीं है।“
”तेरी गाड़ी जहाँ पंचर हुआ था। वहाँ से लेकर आगे नदी के उस पार तक जंगल ही था। तुमने सारे पेड़ को कटवाकर समाप्त कर डाला है।“
”पेड़ कटवाकर बेचना, मेरा बिजनेस है। लकड़ी के मुनाफा से आज मैं बहुत बड़ा आदमी बन गया हूँ।“
”तुम अपने मुनाफा के वास्ते पेड़ कटवाता रहा। पर तुमको पेड़ में निवास करने वालों की चिंता नहीं। प्रत्येक पेड़ में घोंसले थे। घोंसले में अंडा और बाल-विहंगिनी थे। प्रत्येक पेड़ को कटवाते ही कितने अंडा नष्ट हुये और कितने बाल-विहंगिनी मर गये। पक्षी और जानवर न जाने कहाँ चले गये? तुम इस जंगल में निवास करने वाले अनेक जीव-जंतु के कातिल हो।“
”मैं, पेड़ मालिक को पैसा देकर खरीदने के बाद कटवाता हूँ। ये प्रश्न तुमको जमीन मालिक को करना चाहिए, जो पेड़ बेचकर पुनः पेड़ नहीं लगाते हैं। इसमें मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मेरा तो बिजनेस है।“ कहता ब्रजेश पंचर वाला चक्का खोलने का प्रयास करता है। कुछ देर बात फिर से मन-ही-मन बड़बड़ाता है, ”उफ़! क्या गर्मी है? उफ़! क्या गर्मी है?….“
”क्या व्यापारी? आज पेड़ कटवाने का अहमियत पता चल गया न!“
”तू जो भी हो! शांति रहो ज़रा! मैं ऐसे ही बहुत परेशान हूँ।“
”आज से बीस बरस पहले बैशाख-जेठ माह में पथिक दोपहर के समय यहाँ की शीतल छाया में आराम किया करते थे। पथिक अपने बच्चों के साथ पेड़ से आम, जामुन, कुसुम और कटहल आदि तोड़कर भूख मिटाते थे। धूप के कम होते ही अपने-अपने घरों की ओर चल पड़ते थे।“
गर्मी से ब्रजेश का मुँह सूखने लगा। इसलिए अनजान आवाज का उत्तर दिये बिना ही कार से बटल निकालकर बचा हुआ पानी पी लेता है। इसी बीच वह आवाज आती है, ”तुम पेड़ कटवाने के बजाय पेड़ लगवाया होता तो आज तुम्हारी हालत ऐसी नहीं होती। तेरी हालत के जिम्मेवार भी तू ही हो।“
”उफ़! क्या गर्मी है? उफ़! क्या गर्मी है? आह, आह, उह, उह……“ ब्रजेश के मुख से धीरे-धीरे आवाज निकलती है। वह हाथ से गला को मलता है। फिर कुछ ही देर में बेहोश होकर जमीन में गिर पड़ता है।

— डॉ. मृत्युंजय कोईरी

डॉ. मृत्युंजय कोईरी

युवा कहानीकार द्वारा, कृष्णा यादव करम टोली (अहीर टोली) पो0 - मोराबादी थाना - लालापूर राँची, झारखंड-834008 चलभाष - 07903208238 07870757972 मेल- mritunjay03021992@gmail.com