कविता

दिव्यांग हूँ तो क्या

माना कि मैं तन से दिव्यांग हूँ
पर मन से तो नहीं हूं
दुनिया की नजरों में मैं असहाय लाचार हो सकता हूं
पर मैं तो ऐसा नहीं मानता।
मुझे खुद पर, खुद के हौसले पर विश्वास है
जैसा भी हूँ,वो खुशी खुशी स्वीकार है,
ईश्वर का फैसला है या मेरी किस्मत
जो भी है उसी में खुश हूं।
जीने के लिए भीख नहीं मांगता
परिश्रम करके खाता हूँ
अपने परिवार का पालन पोषण करता हूँ।
खुद पर गर्व करने के साथ
ईश्वर का धन्यवाद करता हूँ,
जिसने मुझे इतना ताकतवर बनाया
कि मैं लड़ सकता हूँ,
अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या से
और हारता नहीं हूं अपने शरीर की हालत से।
ईश्वर की कृपा से ही जीवन जीने के लिए मिला है
दुनिया में मुझसे भी ज्यादा
शारीरिक अक्षमता, अपंगता, दिव्यांग लोग हैं
मैं तो फिर भी ठीक हूँ,
आंख कान मुंह नाक पैर तो सलामत हैं
क्या यह कम है जो रोता रहूँ?
जीते जी रोज रोज मरता रहूंँ?
ईश्वर का अपमान मुझसे न हो पायेगा
उसकी व्यवस्था का विरोध भला मैं क्यों करूं?
ईश्वर से ऊपर होने जैसा काम मैं क्यों करूं?
मैं जैसा भी हूँ जब बहुत खुश हूँ
तो आप क्यों हैरान परेशान हैं
नाहक दया दिखाकर मुझे कमजोर कर रहे हैं।
मुझे अपने दिव्यांग होने का अहसास कराकर
आखिर आप क्या दिखाना चाहते हैं?
मेरे हौंसले का अपमान क्यों करना चाहते हैं
आप कुछ भी कहें मैं लाचार नहीं हूं
मैं बुलंद हौसलों की मीनार हूँ।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921