लघुकथा

सच्चा सुख

अम्बिका प्रसाद आज कई सालों के बाद अपने गांव धनवा आए हैं, पक्की सड़क और बिजली को छोड़ कर कुछ ज्यादा तब्दीली उन्हें दिखाई नहीं दी। हां,एक बदलाव और दिखा अब हर किसी के हाथ में मोबाइल है।

जैसे – जैसे अपने घर के करीब पहुंच रहे थे वैसे -वैसे बचपन सारी यादें ताजा हो रही थी ।जब से वो नौकरी के चक्कर में शहर गए तब से गांव आना -जाना कम हुआ और बच्चों की जिम्मेवारी के बाद तो बंद ही हो गया। 

अब रिटायर होने के बाद फुर्सत हुई । बच्चे सभी अपनी-अपनी लाईफ में व्यस्त है, पत्नी का दो साल पहले देहांत हो गया।

अब जाकर उन्हें गांव की सुध आई।छोटा भाई तो कब से बुला रहा था लेकिन उनके पास समय कहां था ?

अभी वो दरवाजे के पास पहुंच ही थे कि भाई के बच्चे “ताऊजी आ गए” शोर मचाते भीतर भाग गए, तभी छोटा भाई लपककर बाहर आया और अम्बिका प्रसाद के चरण स्पर्श किए।

शाम तक तो मानो आधा गांव उनसे मिलने आ गया आंगन में देर रात तक चहल-पहल रही। रात खाना आंगन में चटाई बिछाकर सभी ने इकठ्ठे खाई , उन्हें याद नहीं कि शहर में अपने सभी परिवार के साथ इकठ्ठे कब खाना था।एक ही घर में रहते हुए भी बात हुए कई दिन गुजर जाते थे।

यहां की चहल-पहल और रौनक देखकर उनकी आंखें भर आई। वो सोचने लगे गांव के सच्चे सुख को छोड़कर न जाने हम शहर में किस सुख की तलाश में भटकते रहते हैं ।

— विभा कुमारी नीरजा

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P