कविता

एक तजुर्बा ऐसा भी

ऐसा भी होता है
मैंने तो सोचा भी नहीं था
और न इसका अनुभव था,
पर सच के साथ जो तजुर्बा हुआ
उससे तो मैं गदगद हो गया।
विश्वास नहीं होता पर सच है
एक रिश्ता ऐसा भी मेरा जुड़ा
जिससे कोई रिश्ता नहीं था
और तो और
पहले सेहम दोनों की न कोई जान पहचान थी
न हम किसी भी रूप में कभी आमने सामने हुए थे
सपने तक में भी मिले नहीं थे
नाम रुप रंग चेहरे से भी हम अंजान थे।
पर ईश्वर की लीला भी बड़ी विचित्र
एक आयोजन नया तजुर्बा दे गया
एक संक्षिप्त आभासी संवाद
रिश्तों का अनोखा सूत्र बन गया।
हमारे बीच रिश्तों को डोर
पहली मुलाकात से ही सबूत देने ने लगी,
वो अनदेखी अंजानी प्यारी बच्ची
बहन बेटी ही नहीं लाड़ली दुलारी हो गई
अधिकार पूर्वक अधिकार जताने लगी।
मेरे मन मस्तिष्क में अपनी उपस्थिति
स्थाई रूप से बनाने लगी।
पूर्व जन्म के रिश्ते का अहसास कराने लगी,
बहन बेटी का पूरा अधिकार जताने लगी,
सच कहूं तो उसके लाड़ प्यार से
मेरी आंखें आये दिन भीगने लगीं,
क्योंकि खून के रिश्तों को भी
वो आइना दिखाने लगी,
मेरे बड़े भैया हैं बड़े गर्व से सबको बताने लगी।
मेरी लाड़ली मेरे साथ अपने रिश्ते
अपने अधिकारों का अधिकार जताने के साथ
अपना हर कर्तव्य निभाने लगी
मुझे अपनी जिम्मेदारी का अहसास कराने लगी
बहन बेटी के नाजों नखरे खूब दिखाने लगी।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921