गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

समय है ज़िंदगानी का कि मेहमां है कि मौसम है
विदाई जा रहे को आ रहे का ख़ैर-मक़्दम है

तमन्नाएँ हज़ारों हैं मगर उनसे नहीं मतलब
तमन्ना जो अधूरी दिल उसी पर यार क़ायम है

करें कुछ और खाकर चोट गहरी ये नहीं हालत
भरें हम आह इतना तो हमारे जिस्म में दम है

न इतनी जान है बाक़ी कि सह लें आख़िरी तक हम
सितमगर जानता लेकिन नहीं करता सितम कम है

क़रीबी हो गए अपने हमें कर दूर जानम से
ख़ुशी जो है रक़ीबों को उसी का तो हमें ग़म है

हमारे पास जो मजमा लगा है वो नहीं यूँ ही
सभी को दाग़ धोने हैं हमारी आँख पुरनम है

ज़माने से न आए पास जो महबूब चेहरे हैं
करें उम्मीद नूतन साल में होना समागम है

— केशव शरण

केशव शरण

वाराणसी 9415295137