क्षणिका

क्षणिकाएँ

एकांत

मैं रोज देख रहा 

अपने चारों ओर बनती हुई 

गगन चुम्बी इमारतें और उनमें रहने वाले

खुद से बात करते  झाँकते लोगों के 

भाव रहित सपाट चेहरे

कैद हों जैसे किसी कैदखाने में 

राम

दो अक्षर का शब्द राम

कहना तो बहुत सरल है 

पर उस राम को समझना

समझकर फिर आत्मसात करना

उतना ही कठिन है 

जिंदगी गुजर जाती है राम राम रटते रटते

पर उतर नहीं पाता जीवन में राम

क्योंकि राम नाम है सहर्ष त्याग का

— ब्रजेश गुप्ता

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020