कविता

दीवार

जब पैसे नहीं थे

एक कमरे में हम सब सोते थे आस पास

कोई एक जब जग रहा होता था

देर रात तक

और आँख खुल जाती थी

दूसरे की

उठ के पूछता था

क्या बात है

नींद नहीं आ रही

हाल चाल पूछ लेता था

एक दूसरे का 

जब से हम अमीर हुए

दीवारे बीच में आ गयीं

साँसे जिंदगी की खत्म हो गयीं

आधी रात को

दीवारों के पार खबर तक न पहुंची

सुबह जब कोई आवाज न आई

तो देखा

जाने वाला जा चुका न जाने कब

दीवार न होती तो उठ जाते

उसकी आहट पर

पर आड़े आ गयी यह दीवार 

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020