कविता

प्रकृति का एक झलक 

मंद मारुत ने 

जँभाई लेते हुए 

अँगड़ाई ली, धीरे-धीरे 

मेघ-माला ने 

हमला किये 

प्राण, सूरज के 

चंड हवा-भँँवरी

घुमा-घुमा, निगले 

पत्ते, हरे पीले 

हल्की बूँदों ने 

गिरायी डालों से 

आम्र-मंजरी

काली घटा की 

बावली हो गयी 

रिमझिम-सिसकी 

नदी युवती ने

बदला दिये 

सरगम ताल के 

दलदला पानी ने 

उखाड़ते जड़ें    

पटके उल्टा, पेड़-पौधे 

जंगली छोटी से 

आँसू मिट्टी के 

बहाये गये, और चट्टानें 

विहँँग जोड़ी ने 

बनाया, साथ जीने 

घोंसला ढूँँढ़ा, उड़ते-भीगते  

सूअर माँ ने 

बावली बनके 

रतन  ढूँँढ़ा, रोते-रोते 

नटखट जुगनूँ ने 

साथ लाये 

पहना लिये, वसन काले 

रिमझिम-सिसकी 

चहक विहँँग की 

और चीखें सुला दीं 

रजनी माँ ने 

निःशब्द कानन भर 

आधी रात सजाया 

कर्त्तव्य निभाया 

चंद्र-गोपी ने 

— धनंजय वितानगे, श्री लंका