कविता

गोधरा दर्दनाक कांड 

लाक्षागृह की तरह ही था गोधरा कांड, 

काश कोई मिल जाता उस वक्त भी विदुर, 

तो कभी ना होता उनका ऐसा अंजाम|

देख रहे थे जलते हुए अपनी ही  संतति को

कहाँ  थे  तुम श्री हरी टाल देते इस विपत्ति को|

वो  दर्दनाक हादसा और ट्रेन के अंदर तुम

बंद सारे खिड़की दरवाजे,आग की लपटों में गुम|

कपड़े तन में चिपके हुए हर एक झुलस रहा

कल्पना करो उस वक्त क्या क्षण था बीत रहा|

अंदर मची थी चीख-पुकार सर्वत्र धुआँ ही धुआँ 

बाहर शोर-शराबा दिल पे अंकित उस दिन के निशाँ|

27 फरवरी आज के ही दिन बीत चुके हैं 22 साल 

ना जाने अभी क्या होगा उनके रिश्तेदारों का हाल|

किसने किसको खोया,किसकी आंखों ने कितना रोया    

 उस हादसा में किसकी आंखें उस दिन थी सोईं 

किसकी आंखों ने अब तक नहीं सोया,

सोचो जरा सोचो तुम, लेखनी तो  चाहे ये  कहना,

ना रहे अब कोई पुरोचन  ना ही लाक्षागृह अब बनना |

— सविता सिंह मीरा 

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]