कविता

रौब झाड़ने की सनक

कुछ लोग, कुछ जातियां, कुछ वर्ग,

रौब झाड़ने की सनक

विरासत में पा लेना मानते हैं,

वो इन्सानों को इंसान नहीं जानते हैं,

क्या उनके शक्लोसूरत,

उनका रक्त,

अलग होता है?

दुनिया में आने के तरीके अलग होते हैं?

वो अलग तरह से हंसते या रोते हैं?

मानव होने का सामान्य सा बोध

क्यों नहीं कर पाते हैं?

क्यों नहीं सुधर पाते हैं?

जातिय गर्वोक्तता की सनक कब तक,

वे क्यों नहीं पा रहे

संवैधानिक व्यवस्था में रच बस,

दरअसल ये सब सिर्फ खुद को

सर्वोच्च व अन्य को निकृष्ट मानने की

एक मानसिक बीमारी के सिवाय

और कुछ नहीं है,

संवैधानिक शक्तियों की अक्षमता

ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है,

लागू करने वालों की नजर में

देश नहीं एक परिवार है,

आम अवाम बिना सोचे समझे

किन किन को पॉवर सौंप देते हैं,

जो बाकी काम करे या नहीं लेकिन

जो रौब झाड़ने की सनक पाल लेते हैं।

— राजेन्द्र लाहिरी 

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554