धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

प्रकृति संग इंसानियत की जरूरत

यह कैसी विडम्बना है कि आधुनिकता की आंधी में दम तोड़ती जा रही इंसानियत के आज इंसानों को इंसानी कद्र करने की सलाह, सुझाव, संदेश, प्रवचन, भाषण का सहारा लेना पड़ रहा है। और पड़े भी क्यों न? जब घर, परिवार से होते हुए इंसानी सभ्यता का पटाक्षेप जितनी तेजी से हो रहा है, उससे तो अब यह सोचना पड़ता ही है कि कहीं इंसानियत इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर भविष्य में शोध का विषय बनने से अब कितनी दूर है। इंसान खुद को इंसान होने की सच्चाई से दूर भाग रहा है। 
     इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे आपके परिवार में ही जैविक रिश्तों के मध्य बढ़ रही जहरीली खाई के रूप में देखने को मिल रही है। लोगों में स्वार्थ, सुख सुविधा, धन पिपासा की भूख, अपने आपका निहित स्वार्थ का बढ़ता उदाहरण भी अब किसी को शर्मसार नहीं करता। बढ़ते सामाजिक अपराध, दुर्व्यवहार और परिवार में हो रहे विघटन के साथ, बुजुर्गों, माता पिता को अपने ही घर परिवार से अलग/बाहर कर देने, उपेक्षाओं की बढ़ती होड़, संपत्ति की मालिकाना हक देने की यथाशीघ्र उत्कंठा, अनाथालयों में बढ़ते कथित रुप से अनाथों की संख्या, वृद्धाश्रमों में धन संपत्ति से सक्षम किन्तु शारीरिक रूप से अक्षम लोगों की संख्या यह बताने के लिए काफी है कि आज के इंसानों के भीतर का इंसान बेशर्मी से इंसानी बोध मर रहा है।
      इस सचराचार जगत में केवल मनुष्य को ही धरती का सबसे छोड़ बुद्धिमान प्राणी माना जाता है, जिसमें सोचने समझने की सर्वाधिक क्षमता है। वह प्रकृति के नियमों के विपरीत कुछ अलग करने का दुस्साहस भी करताहै, जबकि अन्य सभी जड़ चेतन प्रकृति की आज्ञा, व्यवस्था का ईमानदारी से पालन करते हुए, उसका भरपूर सम्मान करते हुए जीवन यात्रा पर पर आगे बढ़ते हैं। 
       इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सूर्य चन्द्रमा नवग्रह, नक्षत्र, पशु पछी, पेड़ पौधे, जीव जंतु सभी प्राकृतिक व्यवस्था का अनुपालन करते हुए अविचलित होकर अपने कर्मपथ पर आगे बढ़ते रहते हैं ।
कभी हमने आपने सुना कि जंगल में रहने वाला प्राणी, जीवजंतु कभी किसी मानसिक, सामाजिक बीमारी का शिकार हुआ, जंगली पेड़ पौधे बिना किसी देखरेख,खाद पानी और सुरक्षा व्यवस्था के भी पर्याप्त हरे भरे रहकर अपनी जीवन यात्रा पर अग्रसर रहते हैं।
   जानते हैं क्यों?क्योंकि  ये सब अपना कर्तव्य प्रकृति की व्यवस्था में रहकर करते हैं। शायद इसलिए भी कि ये सब मनुष्यों की तरह विवेकी विचारवान नहीं। ईर्ष्या, द्वैष, निंदा,नफरत, स्वार्थ लिप्सा की भावना नहीं। मानवीय मूल्यों के सकारात्मक, नकारात्मक सोच विचार की चिंता नहीं।
        लेकिन इंसानों में ईश्वरीय विधानों और प्रकृति की व्यवस्था में अतिक्रमण करने की बढ़ती जिद, किसी भी कीमत पर सुखसुविधा की बढ़ती जा रही भूख, खुद को खुदा समझने और कुछ भी करने की सामर्थ्य और अधिकारों का दंभ इंसानों के भीतर के इंसान को अपाहिज बना रहा है।
     ऐसे में हम कुछ भी बहाने बनाएं, किसी को भी दोष दें,मगर जब प्रकृति को लगता है कि उसकी व्यवस्था में हद से अधिक अतिक्रमण हो रहा तब वह अपनी व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करने के लिए विभिन्न कदम उठा ही लेती है, जिसमें बाढ़, सूखा, बादल फटना, अत्यधिक वारिश, भयानक दुर्घटना, ग्लेशियर का पिघलना, भीषण ठंड, बर्फबारी, अग्नि कांड, ज्वाला मुखी का फटना, रहस्यमी बीमारियां, युद्ध की पृष्ठभूमि, प्राकृतिक असंतुलन आदि विभिन्न रूपों में अपना संतुलन बनाती रहती है।
    अगर हम तीन चार दशक पीछे के समय का अवलोकन गहराई से करें, तो पायेंगे कि प्राकृतिक रुप से इतनी समस्याएं नहीं आती थीं। क्योंकि इंसानों का अधिसंख्य इंसान जिंदा था, उस समय वो प्रकृति की पूजा करते हैं, प्रकृति से प्यार करते थे, प्रकृति के अनुरूप जीवन जीते थे।तब  प्रकृति से इतना खिलवाड़ भी नहीं होता था, और न ही  छल, कपट, लालच, ईर्ष्या, बेइमानी, लोभ, अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार और प्रकृति से खिलवाड़, मानवीय मूल्यों की इतनी दुर्दशा जाने क्या क्या भी नहीं था।
  ऐसे में जब हम अपने पालक पोषक प्रकृति की इतनी उपेक्षा, अपमान और उत्पीड़न करने में संकोच नहीं कर रहे हैं तब इंसान तो हम खुद हैं, जिसके बेताज बादशाह भी हम स्वयं हैं तब इंसानों की कद्र और इंसानियत के बारे में नसीहत बेकार की बातें हैं।
     लेकिन यदि हम खुद से प्यार करते हैं और अपनी अगली पीढ़ी को कुछ बेहतर देकर दुनिया से जाना चाहते हैं तो पुनः प्रकृति की व्यवस्था के साथ सामंजस्य बनाने का संकल्प आज से लेना होगा। अन्यथा हम अगली पीढ़ी से किसी सम्मान,रहम और इंसानियत अथवा संवेदनशीलता की उम्मीद न ही रखें तो बेहतर होगा।
वैसे भी जब प्रकृति ही न होगी, तब न ये श्रृष्टि रहेगी और न हम, फिर ईश्वर होगा या नहीं हमें, आपको क्या फर्क पड़ने वाला।
     लेकिन सबसे पहले इंसान हैं तो इंसान की तरह रहिए, इंसानों की कद्र कीजिए, इंसानियत को जिंदा रखिए। तभी अपने अस्तित्व की उम्मीद कीजिए अन्यथा विनाश का बेसब्री से इंतजार कीजिए और इतिहास बनने की ओर कदम तोोो बढ़ा ही रहे हैं

*सुधीर श्रीवास्तव

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