कविता

बेबसी का आलम

बहुत ही व्यथित हूं परेशान हूं,

किसी के दर्द से अनजान हूं,

ये नौकरी ये चाकरी

मुझे बांध के रख दिया है,

नहीं पहुंच पा रहा हूं वहां

जिसके साथ जीवन बिताने का

मैंने भरी महफिल में वचन दिया है,

कोसूं तो किसको?

अपनी बेबसी को,

होठों से न निकलती हंसी को,

कुदरत ने तुम्हारे शरीर को बांधा है

लेकिन मेरा तो तन,मस्तिष्क,मन

सब कुछ बंधा है इस समय के

मोटे रस्सों से,

किसे गोहराना है,

किसे आवाज लगाना है,

किसके आगे गिड़गिड़ाना है,

कैसे राहत पाना है,

कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूं,

व्यथा किसी को नहीं बता रहा हूं,

स्तब्ध हो रुका हूं कर्मों के पालन पर,

मुझे खुद ही तरस आ रही है

अपनी बेबसी के आलम पर।

— राजेन्द्र लाहिरी 

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554