कविता

पानी की बून्द और सागर

पानी की बून्द ने सागर से कहा

मुझे जाना होगा छोड़ना होगा तेरा साथ

चंद रोज़ की बात है फिर मिलूंगी तुमसे

लौट कर फिर आउंगी मैं तेरे पास

इतना कहकर बून्द हवा में उड़ गई

दूर आसमान में उड़ रहे बादलों में समा गई

घनघोर घटाओं ने ढक दिया आसमान

इतना बरसा पानी धरा की प्यास बुझा गई

हर तरफ जहाँ नज़र जाए पानी ही पानी था

नाले नदियां दरिया सब में आ गया था उफान

सबमें होड़ मची थी समुद्र से मिलने की

पेड़ों को चीरती हवा चारों तरफ था तूफान ही तूफान

आसमान में गरजे बादलों से निकली कहती है वह बून्द

समुद्र से मिलने नदी नालों दरिया को पार कर जाउंगी

समुद्र से मिलना भी बहुत ज़रूरी है मेरा सुन ए बादल

अगर नहीं मिलूंगी तो धरा को कैसे तृप्त कर पाउंगी

यह मेरा जीवन चक्र है समुद्र और बादल बिन अधूरा

समुद्र से बिछुड़कर बादल से मिलकर होता है पूरा

जल के बिना जीवन की कल्पना है बेकार

मैं ही हूँ धरा पर इस जीवन का आधार

— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र