गीत/नवगीत

गीत – जिह्वा रूपी शमशीर 

सत्ता  पाने   का   अहंकार, सत्ता  खोने   की   पीर  बड़ी।

दोनों ने  मिलकर  खींची है, रंजिश की एक लकीर बड़ी।।

है एक पक्ष  जो  भारत को   अपनी  जागीर समझता है।

सत्ता  को  सोने  की प्याली  में  रक्खी खीर समझता है।

भ्रष्टाचारी  गंगा  जिसके शासन में कल-कल बहती थी,

जो खुद को ही हर  भारतवासी की तक़दीर समझता है।

जनता  ने  उसके  पाँवों  में  पहना   दी  है  ज़ंजीर बड़ी।

दोनों ने मिलकर खींची है, रंजिश की एक लकीर बड़ी।।

है  एक   दूसरा   पक्ष, जिसे  जनता   ने गले  लगाया है।

दशकों के बाद किसी को अपने सिर-माथे बिठलाया है।

पकड़ी  है राह सही लेकिन, भाषणबाजी  कुछ ज़्यादा है,

सच में उतना भी नहीं हुआ, जितने का ख़्वाब दिखाया है।

जितने भी काम किए अब तक, उससे भी हैं तक़रीर बड़ी।

दोनों ने  मिलकर  खींची है, रंजिश की एक लकीर बड़ी।।

सत्ता  हो  चाहे   हो  विपक्ष, दोनों  ही   कुंठित  लगते हैं।

दोनों  की  वाणी  से  प्रकटे   उद्गार   संकुचित  लगते हैं।

आरोपों-प्रत्यारोपों   से   गाली-गलौज  तक  जा पहुँचे,

भाषा  की  मर्यादाओं  से  दोनों  ही   वंचित    लगते हैं।

दोनों  की है  अपनी-अपनी  जिह्वा रूपी  शमशीर बड़ी।

दोनों ने मिलकर खींची है, रंजिश की एक लकीर बड़ी।।

— बृज राज किशोर ‘राहगीर’ 

बृज राज किशोर "राहगीर"

वरिष्ठ कवि, पचास वर्षों का लेखन, दो काव्य संग्रह प्रकाशित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनायें प्रकाशित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ सेवानिवृत्त एलआईसी अधिकारी पता: FT-10, ईशा अपार्टमेंट, रूड़की रोड, मेरठ-250001 (उ.प्र.)