मटका और पानी
मटका साहब आपने बहुतों को
निःस्वार्थ पानी पिलाया है,
तालु से चिपक रहे गले को
चुटकी में तर कराया है,
मानता हूं कि आपकी पूछ परख
अब पहले जैसी नहीं रही,
पर गांवों में अब भी विराजे हो
निर्धनों के घर हर कहीं,
आपने अपने पानी के साथ
कभी नहीं परोसा जुकाम व सर्दी,
आपको किसी ने नहीं कहा
बेकार पुराना बेदर्दी,
बिना भेदभाव सबको जल पिलाया,
व्याकुल को हंसाया ही,नहीं रुलाया,
कितनी भी गर्मी रहे नीर में
उसे ठंडा रहना सिखाया,
कभी घड़े की कोई जाति नहीं बताया,
फिर ये कौन धूर्त,असभ्य,तुझे
जाति के दलदल में धकेल रहा,
क्या उस पर मानवता का
नहीं कोई नकेल रहा,
जहां पहला सबक ही
समानता का पढ़ाया जाता है,
फिर क्यों वहां किसी नरभक्षी को
गुरू के रूप में बिठाया जाता है,
बच्चे की मोहक मुस्कान को भी
जो समझ नहीं पाता है,
घड़े को छू लेने पर ही क्यों
कोई बच्चा अपनी जान गंवाता है,
मटका महाशय कुछ दोष तो
जरूर आपका भी रहा होगा,
आपने किसी दुष्ट के घर रह
कैसे उसकी क्रूरता सहा होगा,
हमें पता था कि पानी जान बचाता है,
आप किस जालिम के घर की घड़े हो
जिसका पानी बच्चे की जान ले जाता है।
— राजेन्द्र लाहिरी