लघुकथा

लाचारी

एक छोटी सी दुकान की बदौलत परिवार का पालन पोषण कर रहे करण के परिवार पर अचानक दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, जब करण पक्षाघात का शिकार हो गया। उसके सामने इलाज, परिवार पालने का संकट आ गया।ऐसे में करण को अपनी लाचारी और बेबसी में कुछ सूझ नहीं रहा था। उसकी पत्नी विभा ने उसे ढांढस बंधाया और कहा देखिए परेशान होने से तो कुछ होगा नहीं। ईश्वर पर भरोसा रखिए, सब ठीक हो जायेगा। फिलहाल आपका इलाज पहली प्राथमिकता है। और घर में जो रुपए थे, उसे लेकर उसने करण को सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया। उसने अपने भाई चंचल को फोन किया और सारी बात बताई। उसके भाई ने अपने एक मित्र राजन को करण के पास अस्पताल भेजा। राजन ने अस्पताल जाकर करण का हाल चाल लिया और चंचल के आग्रह पर करण को लाकर निजी अस्पताल में भर्ती करा दिया। साथ ही चंचल के आने तक वहीं रहा। चंचल के आ जाने से विभा को बल मिल गया। चंचल और करण नियमित देखभाल में लगे रहे।लगभग एक माह बाद करण को अस्पताल से छुट्टी मिल गई। और वो घर आ गए। अब करण को फिर से दुकान की चिंता होने लगी। बेटा इतना बड़ा था नहीं, तो विभा ने हौसला दिखाया और खुद दुकान पर बैठने लगी। करण जिस दुकान से सामान लेता था, उसने भी सहयोग किया और जो सामान चाहिए होता था, उसे शाम को करण की दुकान भिजवा देता। जो भी हिसाब किताब होता, करण फोन द्वारा करवा लेता और पैसे भिजवा देता। विभा के भाई ने आर्थिक सहयोग देकर उसको भरपूर संबल दिया। विभा की हिम्मत ने लाचारी से बाहर निकल कर उम्मीदों के द्वार खोल दिए।

*सुधीर श्रीवास्तव

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