निर्वासित बेटियाँ
ठुकराई गई बेटियाँ बुआ
नैहर वापस आ तो जाती हैं
पर वह पहले की भांति
चहकती बिल्कुल नहीं हैं।
बोझ समझती हैं खुद को
भूल जाती है अपने वजूद को
कोशिश करती हैं मुस्कुराने का
छिपा नहीं पाती अपने दुख को।
एक कोना तलाशती हैं घर में
जो हक जताते थकती नहीं थी,
अब स्थिति चाहे जो भी हो
बस वो संतुष्ट नजर आती हैं।
ना जिद ना जिरह कुछ भी नहीं
हर हाल में कहतीं हैं सब सही
जाने की जिद करो तो
जाना नहीं चाहती वो कहीं।
खुद को वह तुलसी नहीं समझती
पूजनीय तो वो अभी भी है
किंतु एक पीपल वृक्ष की तरह
जहाँ शनिवार ही दीप जलता है।
— सविता सिंह मीरा