कुण्डली/छंद

कुछ कुंडलियां

1-
कहते ज्ञानी लोग हैं, अजब गजब संसार।
दुनिया लोभी लाभ की, यही दिखे व्यापार।
यही दिखे व्यापार, मोह के सारे मारे।
मन्दिर जाते लोग, स्वार्थ को लेकर सारे।
बना धर्म व्यापार, आवरण में कुछ रहते।
दौलत का सब खेल, गुणी जन देखो कहते।।

— डॉ सरला सिंह स्निग्धा


  1. मानव होता जा रहा, मानवता से दूर।
    धनलोलुपता बढ़ गई, घूमे मद में चूर।
    घूमे मद में चूर, बनें दानव सम पापी।
    दया धर्म सब छोड़, नीचता उनमें व्यापी।
    सबसे रहा महान, यही अब लगता दानव।
    दया धर्म को छोड़, पातकी होता मानव।।

–डॉ सरला सिंह “स्निग्धा”

3-
छाया और सुगंध है, वृक्षों की पहचान।
जीवन दाता वृक्ष हैं, इस धरती की जान।
इस धरती की जान, संभालो इनको सारे।
कटते जाते नित्य, मनुज से ये हैं हारे।
फल फूलों की खान, यही है सबने पाया।
पशु पक्षी हर जीव, पा‌ रहा इनसे छाया।

— डॉ सरला सिंह “स्निग्धा “

4-
मानव‌ अब तो चेत जा , क्यों बनता नादान।
जीवन यह बहुमूल्य है, ले तू इसको जान ।
ले तू इसको जान , दानवी वृत्ति तोड़ दे ।
कर सबका उपकार, नफरतें सभी छोड़ के।
मानवता को थाम , नहीं बनना तू‌ दानव ।
सदा सत्य को जान, यार तू तो है‌ मानव ।।

— डाॅ. सरला सिंह “स्निग्धा”

5-
धरती बोझिल सी हुई, घटता जाता नेह ।
अपनों से दूरी बढ़ी , दिखे स्वार्थ हर गेह।
दिखे स्वार्थ हर गेह , कहीं अपनापन खोया।
गैरों की क्या बात , मनुज अपनों पर रोया।
धरा प्रेम की आज , लगे बंजर अरु परती ।
छल छल बहता नेह, आज सूखी सी धरती।।

— डाॅ. सरला सिंह “स्निग्धा”

6-
सुनता कौन गरीब की , इस दुनिया में आज।
अपनी ही झोली भरें , करते खुद पर नाज ।
करते खुद पर नाज , गैर को कब वे जानें।
भूखे मरते लोग , नहीं कोई पहचाने ।
कहती सरला आज, समय सिर अपना धुनता।
कितने हैं लाचार, कहाँ जग उनकी सुनता।।

— डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”

डॉ. सरला सिंह स्निग्धा

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