कहानी – सपने सच हुए तो…
डॉ जगदीश ने दाखिल किए मरीज को ड्रिप लगाया और कुछ हिदायतें नर्स को देकर अपने आफिस में जाकर कुर्सी पर बैठ गया…।
बाहर हल्की-हल्की बूंदा बांदी हो रही थी । ठीक वैसी ही बूंदा बांदी उस दिन भी हो रही थी जिस दिन वह अपने पिताजी का दाह संस्कार कर वापस अपने घर आया था..।
दिल में एक टीस सी उठी। डॉक्टर की कुर्सी पर बैठा बैठा वह अतीत के लम्हों में खो गया ।
सोचते सोचते…. वह आज से ठीक बारह वर्ष पहले के समय में पहुंच गया ।
जब वह अपने पिताजी को अपने हाथों अंतिम विदाई दे आया था और फिर उसके बाद उसके सिर पर हाथ रखने वाला इस दुनिया में अपना कोई नहीं था।
तब वह लगभग आठ वर्ष का था जब उसकी अम्मा बहुत बीमार हुई थी और पिताजी उसका इलाज करवाते इससे पहले ही वह उन दोनों को छोड़कर चलती बनी थी ।
उसके मानस पटल से अंकित पड़ी तस्वीर धीरे-धीरे फिल्म की रील की भांति सरकने लगी। उसे अपनी अम्मा बहुत प्यारी थी ।
जिस दिन अम्मा ने पिताजी की गोद में आखिरी सांस ली थी वही तो पानी का गिलास लिए बिस्तर के साथ खड़ा था। धीरे-धीरे अम्मा का सिर लुढ़क गया था और पिताजी ने उसे जमीन पर लिटा दिया था।
फिर आसपास वाले इकट्ठे हो गए थे और पिताजी अम्मा से लिपटकर फफक फफक कर रो रहे थे । वह भी फफक कर रो रहा था । किंतु वह मौत का अर्थ इतना नहीं समझता था । उसके सामने से ही तो उसकी अम्मा की लाश को लोग उठाकर दाह संस्कार के लिए ले गए थे ।और वह नाथू काका की गोद में सुबक रहा था ।
धीरे-धीरे वक्त बीतता गया । पिताजी और वह जीवन जीते गए । वह जवान हो रहा था और पिताजी बूढ़े….. ।
गांव शहर से लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर था । गांव में उनका एक छोटा सा मिट्टी का कच्चा घर था ।थोड़ी सी जमीन थी ।और थोड़े से मवेशी। पिताजी जमींदारी करते और मवेशी संभाल लेते, तथा वह स्कूल में पढ़ता।
जब समय मिलता घर का काम भी संभालता जब दो महीने की छुट्टियां पड़तीं वह घर संभाल लेता और पिताजी मजदूरी कर कुछ पैसे कमा लेते।
वह बहुत खुश था दसवीं कक्षा का परिणाम निकला था और उसने प्रथम श्रेणी से दसवीं की परीक्षा पास कर ली थी।
पिताजी भी बहुत खुश थे । उन्हें तो जैसे दुनिया का बहुत बड़ा खजाना मिल गया था… ।
रात ढल चुकी थी …, दोनों बाप बेटा खा पीकर चूल्हे पर बैठे आग सेंक रहे थे। रसोई में एक तख्ते पर खाने-पीने के पांच से बर्तन रखे थे । साथ ही घड़ियाली (घड़ा रखने की जगह )पर घड़ा पानी से भरा हुआ था। चूल्हे की बगल के कोने पर बेतरतीब पड़ा लकड़ियों का गट्ठर था ।तब पिता जी ने घड़े की तरफ इशारा करते हुए कहा था …..”बेटा देखो घड़ा देख रहे हो न पानी से भरा पड़ा है ,मैं भी तुम्हें इस भरे हुए घड़े की तरह विद्या से भरा पूरा देखना चाहता हूं …।
“इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम अपनी मौसी के पास चंडीगढ़ जाकर पढ़ो और मेरे दिल की तमन्ना पूरी करो।”
वह आगे बोले -“बेटा तुम्हारी अम्मा की भी आस थी कि हम तो अनपढ़ हैं परंतु हम अपने बेटे को खूब पढ़ाएंगे लिखाएंगे और बड़ा अफसर बनाएंगे…” कहते-कहते उनकी आंखें छलछला आईं थीं।
चूल्हे में आग बुझने लगी थी। उन्होंने चूल्हे में फूंक देनी चाही तो आंसुओं की बूंदें चूल्हे की गर्म राख पर गिरी …। धीमी सर्रर… की आवाज हुई।
उसने कहा-” ठीक है पिताजी जैसा आप कहते हो मैं मौसी शीला के पास चंडीगढ़ चला जाऊंगा और खूब मेहनत करके पढ़ूंगा लिखूंगा, परंतु आप अकेले कैसे रहोगे?”
” बेटा मेरी चिंता मत करना…., मैं तेरे लिए सब कुछ सह सकता हूं।”
पिताजी ने उत्तर दिया ।
चूल्हे में आग बुझ गई थी। दोनों सोने के लिए चारपाई पर लेट गए।
तब लेटे-लेटे ही पिता जी ने कहा-” क्यों न बेटा परसों ही तुम चंडीगढ़ चले जाओ और अपनी अगली पढ़ाई शुरू कर दो।” उसने हां में सिर हिला दिया।
एक क्षण को वह शहर की कल्पना करके रोमांचित हो जाता लंबी चौड़ी सड़कें चारों तरफ चहल-पहल दुकानें गाड़ियां रौनक ही रौनक।
शहर का दृश्य जब उसकी आंखों से गुजरता वह रोमांच से प्रसन्न हो उठता, क्योंकि गांव में तो सब कुछ इसके विपरीत शांत धीमा और ठहरा हुआ था ।
शहर की तरह न भीड़ थी न भागदौड़ ।
फिर भी …, गांव छोड़ने की कल्पना से ही वह उदास हो उठता। अपने पिताजी का ख्याल आता तो और भी उदास और बेचैन हो जाता। पिताजी उसके बगैर इस घर में अकेले कैसे रहेंगे? मवेशी वा जमीन अकेले कैसे संभालेंगे ? मन परेशान हो उठता परंतु उसे अपने पिताजी तथा अम्मा के लिए कुछ बनना था ।
इसलिए दूसरे क्षण वह अपने उज्जवल भविष्य की तस्वीर देख हर्षित हो उठता। इस तरह सोच सोच उसने दूसरा दिन भी बिता दिया था। तीसरे दिन सुबह वह अपना सामान बांध कर तैयार हो गया था।
पिताजी उसे सड़क तक छोड़ने आए थे और बस में बैठाकर छलकते आंसुओं को रुमाल से पहुंचते हुए घर की ओर चल दिए थे ।
पिताजी उसके बगैर नहीं रह सकते थे क्योंकि वही तो उनकी एकमात्र दौलत था । किंतु उसके उज्जवल भविष्य के लिए उन्हें यह सब तो सहना ही था ।
बस सड़क पर मोड़ों को लांगती हुई दौड़ रही थी। जीवन भी तो इन सड़कों की तरह ही होता है मोड पर मोड़।
वह बस की खिड़की से नीले आसमान पर तैर रहे एक बादल के टुकड़े को देख रहा था जैसे वह टुकड़ा अपने परिवार से बिछड़ गया हो और इस विस्तृत आकाश में अपने परिवार को ढूंढ रहा हो।
बस शाम होते-होते चंडीगढ़ पहुंच गई थी और वह अपनी मौसी के घर रिक्शे पर बैठकर चला आया था । मौसी ने जब उसे गली में रिक्शे से उतरते देखा तो वह बाहर दरवाजे की तरफ दौड़ी आई थी।
उसने मौसी के पैर छुए और मौसी ने उसे गले लगा लिया था। उस दिन मौसी बहुत खुश थी ।
दरअसल मौसी का अपना कोई बच्चा न था ।मासड़ रेलवे में चपरासी की नौकरी करते थे ।
वे ज्यादातर साहब के साथ बाहर टूअर पर ही रहते थे और मौसी घर में अकेले रहती थी। मौसी की उम्र भी 50 से ऊपर थी । वे भी अक्सर बीमार रहती थीं ।
अब तो उसे बेटे के रूप में भांजा मिल गया था…।
उसे अकेलेपन की अब कोई चिंता न थी ।उस दिन मौसी ने उसे अपने हाथों से बड़े चाव से खाना बना कर खिलाया था । बरसों बाद रोटी में उसे मां के हाथों की खुशबू आई थी ।कहते हैं “मां जन्मे मौसी गोद करे ” । उसे मां के रूप में मौसी मिल गई थी । उसने शहर के सीनियर सेकेंडरी स्कूल में जमा एक में दाखिला ले लिया ।
दो वर्ष न जाने कब बीत गए न तो उसे पता चला और ना ही मौसी को । वह 12वीं की परीक्षा में पास हो गया उसकी अंक देखकर एक प्रवक्ता ने जो उसे जीव विज्ञान पढ़ाते थे एम बी बी एस के टेस्ट के लिए आवेदन करने को कहा तो उसने वैसा ही किया और सौभाग्य से टेस्ट के बाद उसका सिलेक्शन भी एम बी बी एस के लिए हो गया । सीट तो सरकारी थी फिर भी खर्चा तो ज्यादा था । यह तो तय था कि उसके गरीब पिता जी इसके लिए इतना पैसा नहीं दे सकते थे ।परंतु मौसी उसकी पढ़ाई का खर्च उठाए थी।
उसी ने ही सब कुछ टेस्ट से एडमिशन तक का खर्चा किया था। फिर भी पिताजी जी तोड़ मेहनत करते और जितना बन पाता अपने भावी डॉक्टर बेटे के लिए हर मां कुछ रकम जरूर भेज देते । कालेज के खर्चे की उसे कोई शिकायत न थी।
बीच-बीच में उसे जब समय मिलता वह मौसी के शहर आता और अपने पिता के पास भी गांव जाता।
जब भी वह गांव आता पिताजी गर्व से सीना तान उसकी उपलब्धियां की चर्चा पूरे गांव में करते फिरते । उसे ट्रेनिंग करते दो वर्ष हो गए थे । तीसरा वर्ष आरंभ हो चुका था।
वह हॉस्टल के कमरे में बैठा पढ़ रहा था …।
सामने टी वी चल रहा था। टीवी में समाचार आया कि खन्ना के पास रेल दुर्घटना हुई है ।जिसमें बहुत से लोग मारे गए हैं । यह समाचार देखते हैं उसे ऐसे लगा मानो आंधी आ गई हो , बड़े-बड़े पेड़ गिर रहे हों, इमारतें डगमगाने लगी हों।
उसे ऐसा लगने लगा मानो बहुत बड़ा भूकंप आ गया हो और उसके पांव के नीचे की जमीन धंसने लगी हो, क्योंकि आज सुबह ही तो वह अपनी मौसी और मासड़ को इसी ट्रेन में बैठा कर आया था। तीन दिन वे दोनों उसके पास ही तो थे । उसने अपने आप को संभालने का प्रयास किया ।जब इस समाचार का पता उसके दोस्त कुलवंत को लगा दोनों इस शाम खन्ना रवाना हो गए ।
जब वे खन्ना पहुंचे तो वहां का वातावरण बड़ा दर्दनाक था। शवों के ढेर लगे थे ।सभी तरफ आंसू ही आंसू थे ।खन्ना की पूरी धरती आसुओं से गीली हो गई थी ।चारों ओर मातम था। कोई कुछ नहीं कह पा रहा था ….।
लोग अपनों के शवों को पहचान रहे थे। कुछ तो काट-काट कर निकल जा रहे थे व पहचाना बड़ा ही मुश्किल था। तीसरे दिन सुबह उसे मांस के लोथड़ों के रूप में मौसी व मासड़ के शव मिले थे ,जिन्हें मात्र थोड़े से बचे कपड़ों से ही पहचाना था उसने ।
अब तक तो उसके मासड़ के दोनों भाई भी आ गए थे ।वहीं शवों का सामूहिक संस्कार कर दिया गया और वे सब घर आ गए ।
कुछ दिन मातम रहा। फिर वह दोबारा कॉलेज चला आया। उधर मासड़ के दोनों भाइयों ने संपत्ति को अपने अधिकार में ले लिया ।
उसे अब पढ़ाई में मदद करने वाला कोई नहीं था न मौसी थी न मासड़।
पिताजी द्वारा भेजा पैसा इस पढ़ाई के लिए पर्याप्त न था। अत: इस अभाव की पूर्ति के लिए उसने ट्यूशन करनी शुरू कर दी ।
परिणाम यह हुआ कि वह परीक्षा में अबकी बार पास न हो सका था ।छुट्टियों में जब वह घर आया तो उसने अपनी सारी स्थिति पिताजी को बता दी।
पिताजी ने उसे हौसला देते हुए कहा -“बेटे तू अब कोई ट्यूशन नहीं करेगा । तुझे पढ़ाई के लिए पूरा खर्चा मैं भेजा करूंगा ।” वह हर माह उसे पिताजी से पूरा खर्चा मिलने लगा । किंतु वह यह जानता था कि पिताजी के पास इतना पैसा नहीं है। इतना पैसा पिताजी कैसे भेजते हैं यह न पूछने का वचन पिताजी ने उससे पहले ही ले लिया था । पिताजी के जी तोड़ मेहनत के उपरांत भी जब उसका खर्चा पूरा नहीं होता था तब पिताजी ने उसकी पढ़ाई के लिए अपनी जमीन को बेचना शुरू कर दिया ।
पिताजी ने पहले अम्मा के गहने फिर मवेशी तथा फिर जमीन बेच दी ।अब पिताजी सब कुछ बेच चुके थे ।
सिर्फ दो कमरों का घर तथा एक कमरा गौशाला थी ।आखिर उन्हें घर भी बेचना पड़ा ।
उन्होंने स्वयं गौशाला में डेरा लगा दिया था। पिताजी दिन में मजदूरी करते शाम को गौशाला में अपना डेरा डालते।
कोई नहीं था उनके साथ दुख दर्द बांटने वाला। धीरे-धीरे शरीर दुबला हो रहा था परंतु बेटे को डॉक्टर बनने की धुन उसके ऊपर किसी नशे की तरह सवार थी।
उन्हें अपने इस लक्ष्य के सिवाय कुछ नजर नहीं आता था। एक दिन जब पिताजी मजदूरी से रात वापस लौटे तो उन्हें भूख नहीं थी । वे बिना रोटी खाए ही सो गए ।
आधी रात बीती होगी कि उनका वजन बुखार से तपने लगा। वे सुबह काम पर नहीं जा सके । पास की डिस्पेंसरी से दवाई ली परंतु कोई आराम न हुआ।
धीरे-धीरे उनका शरीर पीला होने लगा ।शायद उन्हें पीलिया हो गया था। अब वे बिस्तर से नहीं उठ सकते थे। घर में खाने के लिए भी कुछ न था ।थोड़े दिन तो पास पड़ोस वाले भी मदद करते रहे फिर सब नजर चुराने लगे ।
अब वे पूरे पीले हो चुके थे। बचने की कोई उम्मीद न थी ।वे बिस्तर पर पड़े रहते ।कभी कभार कोई कोई आकर थोड़ी देर बैठ जाता ,पानी दूध पिला जाता।
फिर सब अपने काम में रम जाते । उस दिन वह बहुत खुश था। वह एम बी बी एस की परीक्षा में पास ही नहीं पूरे कॉलेज में टॉपर आया था। अब वह डॉक्टर बन गया था ।डॉक्टर जगदीश ….।
वह जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहता था ताकि पिताजी को सपना पूरा होने की बधाई दे सके। वह सुबह सामान बांधकर घर के लिए रवाना हो गया। आज गाड़ी फिर पहाड़ी सड़क पर मोड पर मोड पार कर रही थी। उसे आज यह मोड बहुत अच्छे लग रहे थे । आज फिर नीले आसमान पर उड़ता हुआ बादल का टुकड़ा अपने प्रिय से मिलने जा रहा था उसने गाड़ी के शीशे से देखा….।
पहाड़ी टीले पर पंजफुल्ली के खिले हुए फूल ऐसे लग रहे थे मानो उसकी अम्मा ने उसके स्वागत में अपना ममतामयी आंचल बिछाया हो….।
लंबे सफर के बाद वह शाम को अपने गांव पहुंचा। सामने टीले पर गांव का पहला घर उसी का था ।जैसे ही वह आंगन में पहुंचा तो उसके घर में तो कोई और अपरिचित परिवार रह रहा था ।
उसने अपने पिताजी के बारे में पूछा तो उसे घर के व्यक्ति ने गौशाला की ओर इशारा करते हुए कहा कि वे वहां रहते हैं….।
गौशाला में चूल्हे का धुआं उठ रहा था । तीन-चार गांव वाले वहां बैठे थे और उसके पिताजी अंतिम सांसें से गिन रहे थे। मानो अपने डॉक्टर बेटे को देखने के लिए ही उन्होंने अपनी चंद सांसे बचाकर रखी हों….।
वह पिताजी से लिपट गया “पिताजी मैं डॉक्टर बन गया हूं।” उसने पिताजी का हाथ उठाकर अपने सिर पर रखा। पिताजी अधखुली आंखों से उसे देख रहे थे ।मानो कह रहे हो.…. “शाबाश बेटे”…, तुमने मेरा और अपनी अम्मा का सपना पूरा कर दिया….।।”
उसने महसूस किया चूल्हे पर बैठे लोग पिताजी को उसके आलिंगन से जुदा कर रहे थे । पिताजी धरा धाम को छोड़कर अगले सफर पर निकल गए थे । फिर पिताजी का क्रिया करम करवाकर शहर आ गया था ।अब दौलत शोहरत उसके साथ-साथ चल रही थी ।
आज वह ज्ञान देई अस्पताल का मुख्य डॉक्टर व मालिक था। जीवन की सब सुविधाएं उसके पास थीं, यदि नहीं था कुछ तो वे थे पिताजी अम्मा मौसी तथा मासड़।
फिर भी…, उनकी याद को साथ-साथ जीने के लिए उसने अपनी अम्मा तथा पिताजी के नाम पर अपने अस्पताल का नाम रख लिया था तथा मौसी व मासड़ की स्मृति को समर्पित एक एन जी ओ बनाई थी जो गरीब बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने में सहायता करती थी। शीला श्रीधर शिक्षण ग्रुप ।
तभी ” ड्रिप खत्म हो गया सर …।” नर्स ने आकर कहा तो जैसे उसे किसी ने गहरी नींद से झकझोर दिया हो ।
अतीत की स्मृतियों से लौटते ही वह नर्स को प्रत्युत्तर में बोला-” चलो आप मरीज के पास चलो मैं अभी आकर चेक करता हूं ।”
उसने अपना स्टेथोस्कोप उठाया और मरीज के कमरे की ओर एक लंबी सांस भरकर चल दिया। सपने सच हुए तो… उसके साथ अपना कोई नहीं था, सिर्फ उनकी स्मृतियां ही साथ थीं….।
— अशोक दर्द