हर्ष की आमद का पवित्र त्यौहार है दीपावली
संसार में अनेक ही त्यौहार मनाए जाते हैं। अगर यह दिन त्यौहार न हों तो मानव को ज़िन्दगी नीरस उदास भरी ही हो जाए। इन त्योहारों के माध्यम से ही मानव अपनी हर्षता, उपलब्धियां एक दूसरे में बांटता हुआ अपनी मंज़िल की ओर पहुंचता है। दुनियां के प्रत्येक जात मजहब, कौम तथा धर्मों में अलग-अलग त्यौहार हर्षोल्लास, चाव उमंगों के साथ मनाए जाते हैं। त्यौहार मनाने के पीछे धार्मिक, राजनीतिक, एतिहासिक, समाजिक, आर्थिक, भव्य आदान प्रदान, मौसम, तथा पिछोकड़ (अतीत) वाले सभ्याचार का गहरा सम्बध होता है।
भारत के प्रमुख त्यौहारों में आता है हर्ष की आमद का पवित्र त्यौहार दीवाली। यह त्यौहार कार्तिक मास की अमावस्या के दिन मनाया जाता है। दीवाली के दिनों को मौसम का बड़ा परिवर्तन हो जाता है। फसलें पक कर तैयार हो जाती हैं। हरियाली अपनी भव्वता के से झूमती है। छोटी-छोटी ठंडक की आमद दृश्य को हिलोरे देती है, एक सुखद माहौल पैदा करती है। सर्दी की ऋतु अपना बिगल बजा देती है। कीट पतंगे तथा गर्म मौसम की समाप्ति हो जाती है। फबीले-फबीले मौसम का मंगलाचरण आनंदमई क्रियाओं के पर खोल देता है।
ऐहासिक तथा धर्म मर्यादा के पक्ष से अनेक कारणों के कारण दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है। सिख इतिहास में श्री गुरू हरि गोबिंद साहिब जी तथा हिन्दु इतिहास में श्री राम चन्द्र जी का वर्णन अनिवार्य आता है।
श्री गुरू हरिगोबिंद साहिब जी की तरक्की, शहरों का निर्माण संगत का अधिक, जुड़ना, मीरी पीरी का सिद्धांत अपनाना तथा समस्त धर्मों में मान सम्मान बढ़ता देखकर लाहौर का गर्वरनर मुरतज़ा ख़ान ईर्ष्या करने लगा। उसने जहांगीर के आगे मनगढ़त तथा झूठी बातें बता कर गुरू साहिब की गिरफ्तारी के हुकुम करवा दिए। गुरू जी के ग्वालियर के किले में कैद कर लिया गया। जब गुरू जी किले में पहुंचे तो वहां 52 राजे भी कैद थे। गुरू जी ने किले में दीवान सजाना आरम्भ कर दिया। सांई मीयां पीर ने भी जहांगीर के गलत फैसलें की निंदा की। गुरू साहिब जब किला छोड़ने लगे तो उन्होंने 52 राजों को भी साथ छुड़वाया। गुरू जी के साथ ही वे राजे बाहर आए। इसी कारण ही श्री हरिगोबिंद साहिब जी को बंदी छोड़ पातशाह कहा जाता है।
जब गुरू साहिब अमृतसर की पवित्र धरती पर पहुंचे तो संगत ने उन्हें मंगलमई अभिनंदन में दीपक जला कर श्री हरि मन्दिर साहिब में दीवाली का त्यौहार श्रद्धा पूर्वक तथा धूम धाम से मनाया। दीपमाला की गई, तरह-तरह के मिष्ठान वितरित किए गए आतिशवाजी आसमान में रौशनी विखेरने लगी, रौशनी की जग मग, जग-मग आमद कर के प्रत्येक वस्तु दीवाली के रंग में रंगी गई जो जीत तथा हर्षता का त्यौहार बना तथा दीवाली की यह एतिहासिक परम्परा तब से चलती आ रही है और रहती दुनिया तक चलती रहेगी।
इतिहास में यह दिन धरू तारे की तरह चमकता रहना है। इसी कारण श्री हरिमन्दिर साहिब अमृतसर (पंजाब) की दीवाली दुनियां भर में प्रसिद्ध है । देश विदेश के श्रद्धालु, इतिहासकार, पत्रकार, कैमरामैन आदि सच खण्ड श्री हरि मन्दिर साहिब में आते हैं। समस्त धर्मों के लोग मिलकर यह त्यौहार मनाते हैं। दीवाली वाले दिन श्री हरि मन्दिर में दीपक-मोमबतियां, तथा दीपकों जैसे रौशन लोगों का भारी ईक्कठ, सोन-सुनहारी श्री हरि मन्दिर साहिब पर की गई दीप माला एक आध्यात्मिक दिलकश, (मर्मस्पर्शी) दिव्य तथा सुकून भरा माहौल पैदा करती है। श्री हरि मन्दिर साहिब में रूहानी कीर्तन संगत को किसी जन्नत से आंनद से जोड़ देता है। शांति तथा हर्ष का समस्त माहौल आध्यात्मिक तथा गुरूयों की बाणी से ओत प्रोत हो जाता है। तारों के समूह की भांति संगत का इक्कठ इतिहास को उदयमान करता है।
इसी दिन ही श्री राम चन्द्र जी लंका से वापिस आए और इसी अमावस्या को उनका राजतिलक किया गया था।
इसी दिन भगवान ने राजा बलि को पाताललोक का इन्द्र बनाया था। जब इन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता पूर्वक दिवाली मनाई कि मेरा स्वर्ग का सिंहासन बच गया।
इसी दिन समुद्रमंथन के समय क्षीर सागर में लक्षमी जी प्रगट हुई थीं और भगवान को अपना पति स्वीकार किया। इसी दिन राजा विक्रमादित्य ने अपने संवत की रचना की थी। बड़े-बड़े विद्वानों को बुलाकर मुहूर्त निकलवाया था कि नया सवंत चैत्र सुदी प्रतिपता से चलाया जाए।
इसी दिन आर्य समाज के संस्थापक महार्षि दयानंद का निर्वाण हुआ।
इसी दिन भगवती मां लक्षमी का त्यौहार भी मनाया जाता है। इसी दिन लक्षमी पूजन, गणेश पूजन, गणेश पूजन, विष्णु भगवान, इन्द्रदेव, वुद्धि के दाता सरस्वती जी की भी लक्षमी जी के साथ पूजा की जाती है। भारत तथा विदेश के सभी मन्दिरों, धार्मिक स्थानों में दीपमाला तथा पूजन होते हैं। इस दिन पूजा का बहुत महत्व माना जाता है। रात्रि के बारह बजे पूजा की जाती है। दो थालों में दीपकों को रखा जाता है। छः चौमुखा दीपक दोनों थालों में सजाए जाते हैं। छब्बीस छोटे दीपकों को तेल बत्ती रखकर जलाए जाते हैं फिर जल, रोली, खील, बताशे, चावल, फूल, फल, गुड़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से उनको पूजा जाता है और टीका लगाया जाता है और भगवन मूर्तियां रख कर पूजा की जाती है। रात के बारह बजे एक चौमुखा दीपक तथा छः छोटे दीपकों में घी बत्ती डालकर पूजा की जाती है। पूजा के कई ढंग हैं।
सारा परिवार पूजा में शामिल होता है यह पूजा मन्दिरों में भी होती है। इस पूजा विधि से प्रत्येक किस्म की दरिद्रता दूर होती है।
शांति तथा शक्ति उदय होती है। नव परिवर्तन से ज़िन्दगी में खुशहाली तथा सुखद वातावरण उतपन्न होता है। इस दिन धार्मिक स्थानों की दीपमाला, धार्मिक स्थानों के भीतर देसी घी के जलते दीपक, साज सज्जा, तरह-तरह की सुरभियां, श्रद्धालुओं की अथाह भीड़, कीर्तन एंव वाणियों का जाय, नगर कीर्तन तथा भगवान मूर्तियों की साज सज्जा में झाकीयों के भव्य दृश्य, कथा वाचकों के इलाही प्रबचन, बाजार में सजावट लिए दुकानें आदि सारा माहौल अपने आप में (स्वंयम) दीवालीपूर्वक हो जाता है। बाज़ारों में गुरूयों, पीर पगम्बरों, भगवानों, ऋर्षियों, मुनियों की तस्वीरें, स्टैचू आदि धड़ा धड़ बिकते हैं।
रात होते ही घर-घर में पटाखों की गूंज, फुलझड़ियों, आतिशवाजियों की सर सराहट भी रौशनियों में पैदा होते रंगबिरंगे सुन्दर दृश्य, दीवाली के इतिहास को चार चांद लगा देते हैं।
घरों में दूर-दूर गए भाई बहन, दामाद बेटी, सब इस दिन हर्षता के साथ इक्कठे होते हैं। बहू बेटियां सज्ज धज्ज कर दीवाली का श्रृंगार बनती हैं। बहू बेटियां ही इस पवित्र त्यौहार की आमद का विमोचन करती है। जिस से दीवाली का पवित्र त्योहार सार्थिक और आनंदमयी हो जाता है।
— बलविन्दर बालम