ग़ज़ल
संभवत है जब अपनी ज़िद के ऊपर आए पानी।
पुल के नीचे क्या फिर पुल के ऊपर जाए पानी।
जब भी इस के तन के ऊपर किश्ती हक़ जमाए,
सिसक-सिसक, सिसक-सिसक, मचल-मचल घचराए पानी।
तड़क सवेरे जब भी सूरज इस का चुम्बन लेता,
ललक लपक कर किरणों से फिर है शरमाए पानी।
जो निरंतर चलते रहते आखि़र मज़िल पाते,
किश्ती घप्पु को बहता-बहता है समझाए पानी।
योग-वियोग खु़शी या ग़म क्या-क्या प्रतीक बनाए,
समझ ना आए तेरी आंखों का उल्झाए पानी।
इस का अस्तित्व चुरासी लाख योनि का जननी,
कुदरत की अद्भुत रचना का इक अंश कहाए पानी।
लाख करोड़ों वाली कीमत इस के समतोल नहीं,
सिर्फ प्यास बुझाए तो फिर प्यास बुझाए पानी।
भिन्न-भिन्न रूपों भीतर इस की माया अजब निराली,
इक तो प्यास बुझाए तो इक नाच नचाए पानी।
घोर घटाओं में जब तक बारिश रंग दिखा ना,
मारूस्थल के जीवन को तो रोज़ रूलाए पानी।
प्रभु की कृपा जैसा है कुदरत का एक अजूबा,
बालम भड़की अग्नि को तो सिर्फ बुझाए पानी।
— बलविन्दर बालम