कविता

गुलामी का दर्द

मनुजों से बैर रख के, खग-नरेतर को सबने चाहा।
स्वयं गुलाम रह न सके, पर को वश में करना चाहा।
ग्रीवा में सांकर डाल के, मनोरंजन का कुकर्म लेख।
उदिग्न संतापी होगा मन, कोसते होगे हर पहर देख।
उद्गम होकर इस सृष्टि में, रोगी बनकर क्यों आया?
गुलामी की बेड़ियाँ पहनें, महल अटारी क्यों भाया?
मंजू रूप गुण का दोष, नीड़ से अयस सलाखों में।
जो स्वतंत्र घूमते-फिरते, ऊँचे नभ और तरु शाखों में।
निज सपने हो गए अधूरे, भाग्य की नैया डूब गयी।
चंद रुपयों की लालच में, भविष्य में व्याध घूस गयी।
शुक सारिका श्वान बिडाल, फणी शेर चीत गजराज।
शौक ने सब अधर्म कराया, नैतिकता से चंपत आज।
गिरते आँसू नही दिखते, देखते केवल स्व खुशहाली।
श्राप सरिस जो भोग रहे, प्रमोद से खूब बजते ताली।
नन्हे बच्चे है किसी के, बना नन्हे बच्चों का खिलौना।
भूल गए निज हर्षों को, पकड़ा दिए कष्टों का बिछौना।
जिनके पूर्वजों ने झेला है, वो भी न जाने कैद की पीड़ा।
खुद रहकर देखो कैद में, जीवन लगेगा नाली का कीड़ा।

— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’

चन्द्रकांत खुंटे 'क्रांति'

जांजगीर-चाम्पा (छत्तीसगढ़)