कविता

क्यों हम बडे़ हो गये

क्यों हम बडे़ हो गये
अपने बचपन की चंचलता को
न जाने हम कहाँ खो दिये।
जब से बडे़ क्या हुए हम
लगता है खत्म हो गये सब।
मेरे सपने अब सतरंगी होते नहीं
इसलिए हम चैन से सो पाते नहीं।
कहते थे सब्र का फल होता है मीठा
इसी सब्र के फल के लालच में हम बडे़ हो चले
दुनियादारी के बोझ तले मैं बेसहारों के पंक्ति में खड़े हो चले।
पता नहीं मेरा बचपन कहाँ खो गया?
मेरे अंदर की चंचल बच्चा न जाने कहाँ सो गया?
बडा़ शकुन था वो बचपन बिन चिंता का था मस्त,
अब,तो दुनियादारी की जिम्मेदारी झेलने में जिंदगी है पस्त।
— मृदुल शरण

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