सिमटे आँगन रोज
बिखर रहे चूल्हे सभी, सिमटे आँगन रोज।
नई सदी ये कर रही, जाने कैसी खोज॥
दादा-दादी सब गए, बिखर गया संसार।
चाचा, ताऊ सँग करें, बच्चे अब तकरार॥
एक साथ भोजन कहाँ, बंद हुई सब बात।
सांझा किससे अब करें, दुःख-सुख के हालात॥
खेत बँटे, आँगन बँटे, खींच गयी दीवार।
शून्य हुई संवेदना, बिखरा घर-संसार॥
सुख-सुविधा की ओढ़नी, व्यंजनों की भरमार।
गयी लूट परिवार के, गठबंधन का प्यार॥
आँगन से मन में पड़ी, गहरी ख़ूब दरार।
बैठा मुखिया देखता, घर का बंटाधार॥
बंधन सारे खून के, झेल रहे संत्रास।
रिश्तों को आते नहीं, अब रिश्ते ही रास॥
कैसे होगा सोचिये, सुखी सकल संसार।
मिलें नहीं औलाद को, जब अच्छे संस्कार॥
— डॉ. सत्यवान सौरभ