गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मिल रहा है अब सुकूं करते हुये इक़रार में।
आ रहा है अब मज़ा बढ़ते हुये इस प्यार में।।

देखते ही तब तुम्हें तो ज़िंदगी ही मिल गयी।
तुम न कहते जो ज़रा तो दर्द बढ़ता हार में।।

प्यार मिलते छा गयी तब चाँदनी- सी देख लो।
हम ग़ज़ल कहने लगे हम प्यार के दरबार में।।

तुम मिले तो सीख लीहै खूब जीने की कला।
दब गया मैं तो तुम्हारे ही किये उपकार में।।

छोड़ दें हम भेदभावों को रहें करके सुलह।
सब करें बातें वफ़ा की क्या रखा तक़रार में।।

ज़िंदगी को खे चलें हम डोर बाँधे प्यार की।
सुन फँसे ही ये न कश्ती अब कभी मझधार में।।

हुस्न जैसे ही दिखा घायल तभी मैं हो गया।
जो छपी तस्वीर तेरी आज के अख़बार में।।

हुस्न जैसे ही हिफ़ाज़त कर सकें हम देश की।
वीर ऐसे जन्म ले लें इस संसार में।।

आज जीते जी हुआ उपकृत मैं तो यहाँ।
इक सलोनी तुम मिली हो जो मुझे उपहार में।।

— रवि रश्मि ‘अनुभूति’

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