ग़ज़ल
इश्क़ बदहाल हज़ारों का है
और ये वक़्त बहारों का है
दिल बुझा और नज़र फीकी-सी
पर चटक रंग नज़ारों का है
ये ज़मीं भी न हमारी निकली
और आकाश सितारों का है
दिल भले हो न, जहां ये लेकिन
दायरों और दयारों का है
सैकड़ों भेद परे रह जाते
जिस जगह मेल विचारों का है
हौसलों की न कहीं चर्चा भी
जिस तरह शोर सहारों का है
तब रहा शौक़ समुंदर देखें
और अब ध्यान किनारों का है
— केशव शरण