सामाजिक

अपने लिए जिएं

स्वार्थ और परमार्थ, अपना उपकार और लोकोपकार, स्वयं के लिए जीना और समाज के लिए जीना, सदैव निजी हितों के लिए कार्य करना और संपूर्ण मानवता के लिए कार्य करना, व्यक्तिगत हितों को महत्व देना या समष्टिगत हितों को महत्व देना, सदैव चर्चा का विषय रहा है। सदैव चर्चा का विषय रहेगा और रहना भी चाहिए। जो लोग अपने लिए समष्टि के हितों को हानि पहुँचाते हैं, उन्हें राक्षसी प्रवृत्ति का माना जाता रहा है और जो लोग अपने हितो पर सामाजिक हितों को अधिमान देते हैं, उनमें देवत्व की प्रवृत्ति मानी जाती है। प्रसिद्ध प्रबंधशास्त्री हेनरी फेयोल ने प्रबंधन के चैदह सिद्धांतों में भी संस्थागत हितों के समक्ष व्यक्तिगत हितों की अधीनता का सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इसी सिद्धांत को संस्कृत के एक श्लोक में इस प्रकार कहा गया है-
त्यजेत् एकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्।।
अर्थात कुल के भले के लिए एक व्यक्ति के हित को त्याग देना चाहिए। ग्राम के भले के लिए कुल के हित का त्याग करने के लिए तत्पर रहना ही उचित है। यदि जनपद या राज्य के हित के लिए ग्राम के हित का भी बलिदान करने की आवश्यकता पड़े तो कर देना चाहिए। इससे भी आगे कहा गया है कि आत्मा के हित या आत्मा की मुक्ति के लिए पृथ्वी का भी त्याग करने के लिए तैयार रहना ही श्रेयस्कर है। आत्मा का अर्थ विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न प्रकार से किया जाता है। हम सामाजिक संदर्भ में संपूर्णता, सभी आत्माओं अर्थात सृष्टि से लेते हैं, जिसके हित में सभी का हित समाहित है। लोकोक्ति भी है, ‘हाथी के पाँव में सबका पाँव’। इसका अर्थ है कि समष्टि के हित में ही व्यष्टि का हित है। परिवार की सुरक्षा व विकास में परिवार के सदस्यों की सुरक्षा व विकास भी निहित है।
जब हम परिवार के हित की बात करते हैं तो अपने हित की भी बात करते हैं। जब परिवार सुरक्षित है तो हम भी सुरक्षित हैं। परिवार में आनन्द हमारा भी आनन्द होता है। हम परिवार के बिना सुखी नहीं रह सकते। यदि हमें सुखी रहना है तो परिवार का सुख सुनिश्चित करना आवश्यक है। सामाजिक संरक्षण वास्तव में व्यक्ति को संरक्षण है। जब हम परोपकार की बात कर रहे होते हैं, तब वास्तव में अपने ही उपकार की बात कर रहे होते हैं। जब हम समाज के हित में जीने की बात कर रहे होते हैं, तब अपने हित में ही जी रहे होते हैं। मानव की कमजोरी धन, पद, यश और संबन्ध हैं। मानव जीवन के केन्द्र में ये चार ही होते हैं। मानव व्यक्तिगत रूप से इनके लिए ही काम करता है। षड्यन्त्र करता है। मार-काट करता है। मजे की बात यह है कि उसके बावजूद वह यह स्वीकार नहीं करता कि यह सब वह अपने लिए कर रहा है। वह यह दिखाने की कोशिश करता है कि यह सब वह परिवार, समाज, देश या धर्म के लिए कर रहा है। वह अपने आपको स्वार्थी मानने के लिए तैयार नहीं होता। वह अपने आपको समाजसेवक और परोपकारी सिद्ध करने के प्रयत्न करता है।
देश-काल वातावरण से मुक्त यह सामान्य स्वीकृत सिद्धांत है कि समाज हित में जीना स्व-हित में जीने से सदैव श्रेष्ठ माना जाता है और माना जाता रहेगा। विचार करने वाली बात यह हे कि स्व-हित और समाज हित अलग-अलग हैं क्या? इनका अलग-अलग होना अनिवार्य है? ये प्रश्न अक्सर चर्चा का विषय बने रहते हैं। यह बड़ा ही जटिल प्रश्न है।
कोई व्यक्ति समाज के हितों के लिए अपने हितों की बलि क्यांे च़ढ़ाए? व्यक्तियों से अलग समाज नाम की इकाई का क्या महत्व है? व्यक्ति के लिए समाज है या समाज के लिए व्यक्ति है। महान बनने के चक्कर में व्यक्ति के साथ अन्याय क्यों हो? समाज व्यक्ति के हितों का संरंक्षण करने के लिए होता है, उसके साथ अन्याय करने के लिए नहीं। इसी विचार को लेकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के द्वारा सीता के परित्याग की घटना की आलोचना की जाती रही है। भले ही राज्य के भले या अपनी महानता की स्थापना के लिए वह निर्णय लिया गया हो किंतु केवल किसी एक व्यक्ति की टिप्पणी से बिना अभियोग चलाए अपनी पत्नी का त्याग कर देना उस समय के जीवन मूल्यों में भले ही सही कहा जा सकता हो। वर्तमान न्याय के सिद्धांतो के अनुरूप नहीं माना जा सकता। यह अलग बात है कि आस्था के विषय के कारण इस पर स्पष्टता के साथ टिप्पणी करने का साहस कम लोग ही जुटा पाते हैं। पारिवारिक व सामाजिक व्यवस्था का गठन ही व्यक्ति के संरक्षण व विकास के लिए होता है। समाज व्यक्ति की मनमर्जी के खिलाफ व्यक्ति की सुरक्षा करते हुए उसको विकास करने के अवसर उपलब्ध करवाना सुनिश्चित करता है।
समाज सेवा और परोपकार के नाम पर घपलों की भरमार करने वाले महापुरूष परोपकारी होने और दूसरों के लिए जीने का दंभ भरते हैं। अपनी आत्मा की मोक्ष के लिए पूरी दुनिया को उपेक्षित करके तपस्या करने में तल्लीनता का दंभ भरने वाले स्वार्थी तपस्वी अपने आपको महर्षि कहकर गौरवान्वित होने का प्रयत्न करते हैं। रंगे हुए कपड़े पहनकर बिना परिश्रम के संसार के सुख भोगने वाले मुफ्तखोर अपने आपको साधु कहलाने का दंभ भरते हैं। करोड़ों रूपयों में खेलने वाले अपने को त्यागी का नाम देते हैं।
नारि मुई और संपत्ति नासी, मूड़ मुढ़ाय भए, संन्यासी।
यह एक पुरानी कहावत है। वर्तमान नए जीवन और नए जमाने मंे तो संन्यासी के पास ही संपत्ति होती है और उनके पास ही संपत्ति के भण्डार होते हैं। उन पर ईश्वर की कृपा हो या न हो लक्ष्मी और कामदेव की कृपा अवश्य होती है। बताने की आवश्यकता नहीं कि लक्ष्मी की कृपा से संपत्ति उनकी चेरी बन जाती है तो कामदेव की कृपा से विश्व सुंदरी रतियों की लाइन लगी होती है।
धार्मिक आस्था का सहारा लेकर भोली भाली युवतियों को फंसाकर उनके साथ रासलीला रचाने वाले अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संत कहलाते हैं। पकड़े जाने पर भी जेलों में रहकर भी नहीं शर्माते हैं। उनके लाखों अंधभक्त उसके बावजूद उनके अनुयायी बने रहते हैं। अपने पेशे के साथ धोखाधड़ी करके धन कमाने के लिए मानवता को कलंकित करने वाले महापुरूष भी अपने को जनसेवक घोषित करते हैं। गरीब जनता से टेक्स के नाम पर धन इकट्ठा करके उसका दुरुपयोग करने वाले तथाकथित नेता अपने आपको जन सेवक ही नहीं, जननायक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। जेल जाने पर वे शर्माकर त्यागपत्र देकर अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री ही नहीं बनाते, वरन जेल से ही सरकार चलाने की घोषणा करते हुए गौरवान्वित होते हैं।
अपने शरीर का प्रदर्शन ही नहीं, शरीर को सीढ़ियों की तरह प्रयोग करके किसी मुकाम पर पहुँचने वाली महिलाएं विदुषी कहलाती हैं और हमारी नई पीढ़ी की लड़कियों के लिए नायिका बन जाती हैं। पर्दे के पीछे पुरुषों को फसाकर मस्ती करने वाली तथाकथित भद्र महिलाएं फिल्म में सती सावित्री की कहानी फिल्माकर भोली भाली युवतियों को मूर्ख बनाती हैं। प्रेमी संग मिलकर अपने ही पति की हत्या का षड्यंत्र रचने वाली स्त्रियाँ करवा चैथ का व्रत रखकर व्रत को कलंकित करती हैं। पैसे के लिए पारिवारिक संबन्धों को दाव पर लगाया जाता है और प्रेम के नाम पर ब्लेकमेल करते हुए धन ऐंठकर अपने आपको महान सिद्ध करने के प्रयत्न भी किए जाते हैं।
आश्रमों और अनाथालयों के नाम पर देह व्यापार चलाने वाली महिलाएं और पुरुष समाज सेवा के नाम पर सरकारों व समाज को लूटते हैं। आजकल गैर सरकारी संगठन बनाकर बहुत बड़े-बड़े खेल हो रहे हैं। देश की सेवा के नाम पर सरकारी व गैर सरकारी एजेंसियों से ही नहीं विदेशों तक से धन जुटाकर अपने स्वार्थ साधने वाले महापुरुषों या समाजसेविकाओं की बहुतायत देखी जा सकती है। समय-समय पर सरकारी एजेंसियों के द्वारा ऐसे एनजीओ के खिलाफ कार्यवाहियाँ भी की जाती हैं। उपरोक्त चंद उदाहरण उन महिला या पुरूषों के हैं जो अपने आपको समाजसेवक या परोपकारी घोषित करते हैं या फिर ईश्वर के प्रतिनिधि घोषित करते हैं। इन सभी वर्गो के व्यक्ति अपने परिवार, समाज या देश की सेवा की बात करते हैं। सभी दूसरों के लिए जी रहे होते हैं। चोर भी यह स्वीकार नहीं करता कि वह अपने लिए चोरी कर रहा है, वह भी दावा करता है कि उसे परिवार की देखभाल के लिए यह सब कुछ करना पड़ रहा है। उसे परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया है। अतः वह दोषी नहीं है। चोरी के धन में से मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर अपने आपको धार्मिक सिद्ध करने के प्रयत्न करता है।
उपरोक्त कुछ उदाहरण मात्र हैं, जो परिवार सेवा, समाज सेवा, जनसेवा, परोपकार या फिर ईश्वर के नाम पर किए जाते हैं। मंदिरों, मस्जिदों, चर्चो व अन्य पूजा स्थलों में दिनों दिन भीड़ बढ़ते हुए भी भ्रष्टाचार और बेईमानी क्यों बढ़ रही हैं? इन पूजा स्थलों में जाने वाले तथाकथित आस्तिक लोग अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सदाचार को अपना लें तो कोई कारण नहीं कि भ्रष्टाचार, बेईमानी और सामूहिक दुष्कर्म जैसे कृत्य इस प्रकार बढ़ें। धार्मिक गतिविधियों के द्वारा तो संतोष, शांति, आस्था, विश्वास के वातावरण का विकास होना चाहिए। इसी प्रकार का प्रचार-प्रसार इस प्रकार की संस्थाओं द्वारा किया जाता है। क्या कारण है कि फिर भी आत्महत्याएँ लगातार बढ़ रही हैं।
वर्तमान समय में आवश्यकता इस बात की है कि जनसेवा, समाजसेवा और धार्मिक भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगाते हुए अपने आपको महानता के चोगे से मुक्त कर अपने लिए जीना प्रारंभ करें। हम अपने आसपास देख सकते हैं कि हम सभी मुखोटे लगाकर घूम रहे हैं। हम कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। हम अंदर से कुछ और हैं, बाहर कुछ और दिखने का प्रयत्न करते हैं। कुछ तो अपनी वास्तविकता को छिपाकर अवास्तविक व्यक्तित्व को प्रदर्शित करने में सफल भी हो जाते हैं। आपको 85 वर्ष से अधिक उम्र के महिला और पुरूषों के बाले काले मिल जाएंगे, किन्तु वे वास्तविक नहीं हैं। रंगे हुए हैं। इसी तरह हमारे आसपास अधिकांश व्यक्ति रंगे हुए सियार बनकर घूम रहे हैं। हम उनकी वास्तविकता को जानते ही नहीं हैं।
जब हम दोगलेपन को लेकर घूमते हैं, तब दोगुने तनाव को लेकर भी घूमते हैं। दोगुने असंतोष को भी पालते हैं। दोगुनी चिंताओं को भी ढोते हैं। दोगुने खतरों को साथ लेकर चलते हैं। तथाकथित परिवारीजनों से ही खतरे में जी रहे होते हैं। जो हमें प्यार करने का दावा करते हैं, वही हमारी जान के दुश्मन बन जाते हैं। यह सब हमारे दोगलेपन का ही कमाल है। इस दोगलेपन के कारण ही हम तनाव में जी रहे होते हैं। इस दोगलेपन के कारण ही हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं। अपने आपको सुखी प्रदर्शित करते हुए हम रोते हुए भी मुस्कराते रहते हैं-
तुम इतना क्यों मुस्करा रहे हो?
क्या गम है जो छिपा रहे हो?
हम जो हैं, उसे स्वीकार नहीं करते, दिखाने की तो बात ही अलग है। हम जो दिखाने की कोशिश करते हैं, वह हम हैं ही नहीं और न ही हम वह बनना चाहते हैं। वास्तविकता यह है कि हम स्वयं ही नहीं जानते कि हम वास्तव में क्या हैं? हम अपने आपसे क्या चाहते हैं? हम अपने आपको जानने का प्रयत्न नहीं करते। हम दूसरों को प्रवचन देते फिरते हैं किन्तु स्वयं अपने पर लागू नहीं करते। हम समाज सुधारक बनकर समाज को सुधारने का ठेका तो लेते हैं, किन्तु अपने आपको सुधारने के प्रयत्न कभी नहीं करते। हम दूसरों की गलतियों को निकालकर उनकी आलोचना करते रहते हैं। अपना आकलन कभी नहीं करते। अपने गुण-अवगुणों के अवलोकन और समीक्षा के लिए हमारे पास समय नहीं होता, क्योंकि हम अपने आप पर समय लगाकर स्वार्थी कहलवाना पसंद नहीं करते। हम अपनी आजीविका नहीं कमा पाते और समाज की सेवा का दंभ भरते हैं।
हमें वास्तविकता स्वीकार करने की आवश्यकता है। हम जनसेवा या परमार्थ करने के लिए पैदा नहीं हुए हैं। हम समाज के लिए नहीं अपने लिए जी रहे हैं। हमें जनसेवा करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता अपनी सेवा करने की है। आवश्यकता अपना विकास करने की है। आवश्यकता अपना सुधार करने की है। आवश्यकता इस बात की है कि अपने कर्तव्यों का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करते हुए अपनी आजीविका कमाए और अपनी कमाई से ही अपने खर्चों का निर्वहन करें। हमें जनसेवा के नाम पर होने वाले चंदों की लूट से ऐयाशी करने के स्थान पर अपने परिश्रम से कमाई रोटी खाकर अपने लिए काम करने और अपने लिए जीने की आवश्यकता है। हमें निपट स्वार्थी बनकर केवल अपने लिए, अपने परिवार के लिए काम करके आजीविका कमाने की आवश्यकता है। हमें जनसेवा, समाजसेवा और धर्म सेवा को तिलांजलि देकर अपने लिए जीकर स्वार्थी बनने की आवश्यकता है। हमें समाजसेवा के नाम पर, धर्म के नाम पर और राजनीति के नाम पर मुफ्तखोरी को रोककर सभी स्वार्थी बनकर स्वयं के लिए जीने की आवश्यकता है। हमें आवश्यकता है कि हम मुफ्तखोरी की बुराई से बचकर अपने लिए जिएं किसी को दान न करें किंतु ईमानदारी से अपने लिए स्वयं कमाएं। दूसरों के लिए नहीं, समाज के लिए नहीं, ईश्वर के लिए नहीं अपने लिए जिएं। ईमानदारी पूर्वक अपने लिए कमाएं और स्वयं कमाकर खाएं और संपत्ति का सृजन करें। आओ हम संकल्प करें कि हम अपने लिए जिएंगे अपने परिश्रम के द्वारा अपने स्वार्थो को पूरा करेंगे।

डॉ. संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी

जवाहर नवोदय विद्यालय, मुरादाबाद , में प्राचार्य के रूप में कार्यरत। दस पुस्तकें प्रकाशित। rashtrapremi.com, www.rashtrapremi.in मेरी ई-बुक चिंता छोड़ो-सुख से नाता जोड़ो शिक्षक बनें-जग गढ़ें(करियर केन्द्रित मार्गदर्शिका) आधुनिक संदर्भ में(निबन्ध संग्रह) पापा, मैं तुम्हारे पास आऊंगा प्रेरणा से पराजिता तक(कहानी संग्रह) सफ़लता का राज़ समय की एजेंसी दोहा सहस्रावली(1111 दोहे) बता देंगे जमाने को(काव्य संग्रह) मौत से जिजीविषा तक(काव्य संग्रह) समर्पण(काव्य संग्रह)

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