कविता

नक़ाब में कौन नहीं है?

क्या कभी समझ पाये कि
नक़ाब के पीछे कौन झांक रहा,
लूटने हिस्से की खुशियों को
नित्य प्रति कौन ताक रहा,
सब कोई कर रहे स्वांग की तैयारी,
अय्यार हर कोने में बैठा कर रहे अय्यारी,
बेटे का नकाब बाप को नहीं दिख रहा,
खेला जा रहा किरदार
अपने आप को नहीं दिख रहा,
मन में कुछ और,
जीवन में कुछ और,
अपरिचित हैं सभी एक दूसरे से
एक साथ रहकर भी,
दगा झूठ परोस रहे
सच कहता हूं कहकर भी,
नहीं हो किसी को किसी पर यकीन,
कौन उड़ रहा छल के आकाश में
है किसका पैर टिका जमीन,
अधीरता और अविश्वास पर
हर कोई है धंसा हुआ,
दौर ए सियासत के खेल में
हर कोई है फंसा हुआ,
चुप रह कर सब बोल रहे
देखो कोई मौन नहीं है,
पहचान छुपा कर बैठा घाती
देखो नक़ाब में कौन नहीं है।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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