ग़ज़ल
खड़े दो उभरते पर्वत बर्फ के आबगीने में।
कि फनियर झांकते हों जिस तरह बहते सफ़ीने में।
कहां तक झूठ एंव सच को बराबर तोल सकता है,
बड़ा ही फ़र्क होता यार पत्थर और नगीने में।
तेरे चेहरे पे नक्शों के यह मिकनातीस प्रसाधन,
जैसे जलती है चिंगारी सलीके में करीने में।
सवेरे सैर कर के कौन आया है हवाओं में,
इत्र के खिल रहे दिलकश शगूफ़े है पसीने में।
किसी की याद में मस्तिष्क में रख दी हैं यह खुशबूएं,
यह कैसे रंग बिरंगे गुल खिले सावन महीने में।
कोई मौसम तेरे आने का थोड़ा बोध देता है,
निकलते सांस हैं रूक-रूक के आहों साथ सीने में।
हवाएं गुल तबाह करतीं कभी राहत नहीं देतीं,
रहम की आस नहीं होती किसी मित्र कमीने में।
तुम्हारी ग़ज़ल का हर शेयर एैसे लगता है बालम जी,
घुली हो ज्यों गुलाबी फूलों की ख़शबू पुदीने में।
— बलविन्दर बालम