हिस्सों का हिसाब
सगे की छाती रौंद कर, मकान खड़ा किया,
मिट्टी की दीवारों में अपनों का शोर दबा दिया।
वो समझा जीत गया, जब हिस्सों का खेल हुआ,
पर कौन समझाए उसे, ये सिर्फ़ एक ढोंग हुआ।
ताजमहल तो बना लिया, पर रिश्तों की नींव हिली,
अपनी ही कब्र को, जहन्नम की छांव मिली।
साहिब, हक़ छीनने से तिजोरी भर सकती है,
पर दिल की दुआएँ नहीं, बद्दुआएँ मर सकती हैं।
मिट्टी में मिलना सबको है, हिसाब वहीं होगा,
तब देखना, तेरा हर लालच तेरा गुनहगार होगा।
— डॉ सत्यवान सौरभ