सामाजिक

‘फिलासफी’ नहीं अपितु ‘आचरण’ आवश्यक है

युरोप, अमरीका, आस्ट्रेलिया, इजरायल, सिंगापुर, जापान आदि की शानो-शौकत, विलासितापूर्ण, सर्वसुलभ सुविधासंपन्न जिंदगी यदि दुनिया के सभी देशों को देनी हो,तो आज के एकतरफा उपयोगितावादी उच्छृंखल भोगवादी युग में क्या ऐसा करना संभव है?इस संबंध में आप क्या सोचते हैं?यह तो सही है कि धरती में यह सब करने के साधन उपलब्ध हैं। लेकिन क्या उपरोक्त अमीर देश ऐसा होने देंगे? क्या बाकी जो अधिकांश देश दयनीय हालत में जीवन यापन कर रहे हैं, उनके नेता और वहां का भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ राजनीतिक सिस्टम ऐसा होने देगा? क्या ऐसा जीवन -दर्शनशास्त्र अमीर देशों और गरीब देशों के भ्रष्ट सिस्टम को स्वीकार्य होगा? शायद बिल्कुल नहीं होगा।
यह भी सही है कि गरीब देशों में दस प्रतिशत लोग तो अमीर देशों के समान ही वैभव विलास का जीवन जी रहे हैं। लेकिन क्या गरीब देशों के ये दस प्रतिशत अमीर लोग चाहेंगे कि उनके नब्बे प्रतिशत भाई भी वैभव विलास का जीवन यापन करें? शायद बिल्कुल भी नहीं।इनकी स्वार्थी मानसिकता को देखकर लग रहा कि ये ऐसा कभी भी नहीं चाहेंगे। ऐसा क्यों? शायद इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि इन दस प्रतिशत अमीर लोगों का आधा मजा ही इसमें निहित है कि उनके नब्बे प्रतिशत भाई अभाव, गरीबी,भूख और बदहाली का जीवन जी रहे हैं। दूसरों को भूखों मरते देखकर उन्हें शुकून मिलता है। बाकी जो दौलत उन्होंने भ्रष्टाचार करके एकत्र की है, उसमें इतना मज़ा, इतनी संतुष्टि और तृप्ति नहीं होती है।यह हकीकत है।
भारत वही देश है जहां पर नमक पर टैक्स लगा देने पर गांधी ने डांडी आंदोलन शुरू कर दिया था, लेकिन आज की सरकार टैक्स पर टैक्स लगाती जा रही है लेकिन जनता जनार्दन चुपचाप इस जुल्म को सहन करती जा रही है। क्यों? क्योंकि अंग्रेजों में भी इतना जमीर बचा हुआ था कि वो जनता की थोड़ी बहुत तकलीफ़ को सुन लेते थे, परंतु आज के हमारे के नेता इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि उनको जनता जनार्दन का दुख दर्द महसूस ही नहीं होता है। यदि कोई आंदोलन वगैरह करें तो करता रहे। कहीं कोई सुनवाई नहीं होगी।या तो आपके आंदोलन को पहले ही कुचल दिया जायेगा या उसमें फूट डाल दी जायेगी या आप महीनों तक भूखे प्यासे मरकर आंदोलन करते रहो, कोई आपकी आवाज को सुनेगा ही नहीं। सूचना तंत्र का दुरुपयोग करके भी सरकार आंदोलन को बदनाम करने का कुचक्र रचने लगती हैं।
सूचना तंत्र पर सिस्टम द्वारा पूरी तरह से कब्जा करके उससे मनमानी और मनघड़ंत सूचनाएं जनमानस को उपलब्ध करवाना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये बहुत बड़ा खतरा बन गया है।इस समय इसका सर्वाधिक दुरुपयोग हो रहा है। जनता को स्थिति का सही ज्ञान होने में अनेक अड़चनें पैदा की जाती हैं। क्या मजाल कि जनता को किसी भी घटना की सही जानकारी मिल जाये। सूचना तंत्र का प्रयोग जनता के हितार्थ नहीं अपितु जनता को अंधेरे में रखने और अपने विरोध में उठने वाली प्रत्येक आवाज को दबाने के लिये किया जा रहा है। यदि जनता के पास थोड़ी भी तर्क, विचार,चिंतन और कारणकार्य की समझ होती तो शायद ऐसा होना काफी कठिन हो जाता। लेकिन जनता के पास यह शक्ति तो दर्शनशास्त्र और इसके अंतर्गत तर्कशास्त्र,ज्ञानशात्र, नीतिशास्त्र आदि के अध्ययन अध्यापन से आती है। सिस्टम ने इन विषयों का जानबूझकर बुरा हाल कर दिया है। तर्क,चिंतन, विचार, कारण कार्य की शक्ति तो स्वयं दर्शनशास्त्र विषय के शिक्षकों और विद्यार्थियों से ही गायब हो गई है।
विनोबा भावे ने एक बार कहा था कि चंबल के डाकुओं से तो पार्लियामेंट में बैठ हुये डाकू अधिक खुंखार हैं। उन्होंने यह कथन तब किया था जब आज़ादी के बाद के दशकों में अमीरजादे लोगों और पुलिसिया जुर्म से तंग आकर चंबल के बीहड़ों में कयी नामी गिरामी बागी पैदा हुये थे। उसके पश्चात् तो गंगा नदी में काफी पानी बहकर समुद्र में जा चुका है सच तो यह है कि उसके पश्चात् डाकुओं को भी यह समझ में आ गया कि डकैतियां डालने के लिये बीहड़ों की ख़ाक छानना आवश्यक नहीं है। इसलिये उसके पश्चात् जिन लोगों की भी डाकू,लूटेरा बनने की संभावना थी,वो सभी के सभी राजनीति में प्रवेश कर गये। विनोबा भावे का कथन जितना सच उनके जीते जी था, उससे सैकड़ों गुना सच आज के समय पर है।बस,एक बार राजनीति में सफल हुये नहीं कि वृहद् स्तर पर लूटपाट,डकैती, भ्रष्टाचार आदि सब शुरू हो गये।बन गये करोड़पति और अरबपति। समकालीन भारतीय राजनीति की यही सच्ची तस्वीर सबके सामने है।
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के दौरान जितने भी सामाजिक,धार्मिक, राजनीतिक सुधार आंदोलन शुरू हुये, उनमें आर्यसमाज को भारत का तार्किक आंदोलन कहा जाता है। लेकिन आजादी के पश्चात् के दशकों में इस संगठन को भी घुन लग गया है। पिछले वर्षों के दौरान इस संगठन की आवाज बस दिवारों के भीतर कैद होकर रह गई है। आर्यसमाज संगठन को संभालने वाले लोगों ने ऐसे संगठनों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है,जो पूरी तरह से लूटपाट, भ्रष्टाचार, पाखंड, ढोंग, मूर्तिपूजा, थोथे कर्मकाण्ड, गौहत्या, मांसाहार,अंग्रेजियत आदि की खुलेआम पैरवी कर रहे हैं।जब तार्किक कहे जाने वाले संगठन का यह बुरा हाल हो चुका है तो बाकी भारत की बुरी हो चुकी हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। फिलहाल भारत में हजारों गुरु, सद्गुरु,संत, मुनि, स्वामी, संन्यासी, योगाचार्य, कथाकार, महामंडलेश्वर मौजूद हैं तथा इन सबके लाखों में, करोड़ों में अनुयायी मौजूद हैं। लेकिन क्या इनमें से कोई भी अपने अनुयायियों को किसी व्यक्ति की कहीं गई किसी बात को, किसी वक्तव्य को,किसी सिद्धांत को, किसी विचारधारा को, किसी धारणा को, किसी परिस्थिति को, किसी पदार्थ को, किसी वाद को, किसी तथ्य को तर्क की कसौटी पर परखकर मानने और नहीं मानने के लिये तैयार करता है? उत्तर है कोई भी नहीं। सभी के सभी अपने अनुयायियों को तर्क की बजाय विश्वास करने के लिये कहते हैं। उपरोक्त तथाकथित महापुरुष तर्क को एक दोष मानते हैं तथा विश्वास को गुण मानते हैं। ये अपने अनुयायियों को सिर्फ विश्वास करने और इसके पश्चात् फिर अंधविश्वास और अंधभक्ति करने के लिये प्रोत्साहित करते हैं।चित्त की एक अवस्था ऐसी आ जाती है कि इसके पश्चात् अनुयायी लोग तर्क करने को घोर पाप -कर्म मानकर चलने लगते हैं तथा अंधविश्वास को धर्म, नैतिकता और अध्यात्म का आवश्यक गुण मानने लगते हैं। आर्यसमाज एकमात्र संगठन था जो तर्क को सर्वोपरि मानता था। लेकिन पिछले कई दशक से यह संगठन भी अन्य संगठनों की तरह ही तर्क को छोड़कर अंधविश्वास और अंधभक्ति में डूब चुका है। सनातन धर्म और संस्कृति तथा भारत राष्ट्र के लिये यह ठीक संकेत नहीं है।
इस समय एक बार फिर से कोरोना वायरस का हौवा जागने लगा है। शायद यह कहना ठीक रहेगा कि कोरोना का हौवा फिर से जगाया जा रहा है। टीवी चैनल और अखबार कोरोना की सुर्खियों से भरे हुये रहने लगे हैं। आखिर कौन है इस हौवा फैलाने के पीछे?कौनसी देशी- विदेशी शक्तियां इसके पीछे काम कर रही हैं? पीछे जब कोरोना महामारी के दौरान जबरदस्ती से लोगों को वैक्सीन लगाई थी, उसके दुष्प्रभाव अब भी हार्ट अटैक,हर्ट फैलियर, गठिया आदि के रूप में उभर रहे हैं। और जब बात सर्वोच्च न्यायालय में पहुंची तो सरकार ने जबरदस्ती करने की बात को सिरे से नकार दिया। और अब फिर से जनमानस के साथ वही खतरनाक घटिया खेल खेलने की योजना बन रही है। यदि जनसाधारण में तर्क, विचार, चिंतन आदि की शक्ति बची होगी तो वह सिस्टम के झांसे में बिल्कुल नहीं आयेगी।जब सारी ताकत एक ही व्यक्ति या व्यवस्था या सिस्टम के हाथ में आ जाती है तो शक्ति का दुरुपयोग होना आवश्यक है। ऐसा होता ही है।इसीलिये लोकतंत्र में राजनीतिक, प्रशासनिक,विधिक, व्यावसायिक, नैतिक, धार्मिक शक्तियों का बंटवारा किया गया है ताकि तानाशाही सिर न उठा पाये।
इसलिये मतदाता की तर्क करने,सोचने,विचारने,कारण- कार्य को जानकर किसी निर्णय पर पहुंचने की क्षमता को ही दबा दिया गया है। ताकि सत्ता के शीर्ष पर बैठे उपरोक्त बड़े लोगों को लूटपाट करने, अपराध करने,धोखाधड़ी करने, भ्रष्टाचार करने, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने, संचार माध्यमों का दुरुपयोग करके झूठ फैलाने तथा अपने विरोधियों को देशद्रोही सिद्ध करने का पूरा अवसर मिल सके। जनमानस क्या, उच्च शिक्षित क्या, धर्मगुरु क्या, योगाचार्य क्या,शिक्षक क्या – सभी की तर्क और युक्तियों के बल पर निर्णय लेने की क्षमता मरणासन्न हो चुकी है। लोगों की बौद्धिक क्षमता निम्न स्तर पर है।लोग मनुष्य की बजाय भेड़ बना दिये गये हैं। जिसने,जैसे,जिस तरह,जिस दिशा में हांक दिया,बस सारे उसी दिशा में चल पड़ते हैं। गुलामों और दासों की भीड़ एकत्र हो चुकी है। समकालीन वैज्ञानिक आधुनिक युगानुकुल गुलामी और दासता ने भी अपना रुप बदल लिया है।अब लोगों के माईंडवाश करने के ढंग नये नये रुप बदलकर सामने आ रहे हैं।सम्मोहन या वशीकरण करने के अनेक ढंग होते हैं। लोगों के चित्त के जाग्रत हिस्से को, तर्क करने वाले हिस्से को, विचार करने वाले हिस्से को, कारण कार्य को जानने वाले हिस्से को सुलाकर भीतरी उस हिस्से में कोई भी अनाप-शनाप,झूठी, मनघड़ंत, मनमानी जानकारी को सत्य कहकर डाला जा सकता है;जो हिस्सा केवल भावनात्मक है, विश्वास कर सकता है। जनमानस को जगाने में किसी की रुचि नहीं है। जनमानस को बेहोश करने में सबकी रुचि है।जिनको भी अपना राजनीति, मजहब, संप्रदाय,मत,पंथ, व्यवसाय, टीवी चैनल, समाज सुधार,योग, सत्संग,अध्यात्म, कोचिंग के नाम पर धंधा चलाना है,उनको सम्मोहन और वशीकरण का यह शोषक खेल करना ही पड़ेगा।यह खेल खेले बिना कोई व्यक्ति भीड़ एकत्र कर ही नहीं सकता है। सही लोगों के ईर्द-गिर्द भीड़ एकत्र नहीं होती है। ध्यान रहे कि तार्किक व्यक्ति कभी भी इनके झांसे में नहीं फंसेगा।इसीलिये अनुयायियों की भीड़ एकत्र करने के लिये सर्वप्रथम तर्क करने की शक्ति को समाप्त करना पड़ेगा। तार्किक व्यक्ति पर कोई सम्मोहन या वशीकरण काम नहीं करता है। इसीलिये वेदों, उपनिषदों, दर्शनशास्त्र, श्रीमद्भगवद्गीता, अष्टावक्र महागीता आदि सभी ने जागने को ही मुक्ति कहा है।

— आचार्य शीलक राम

आचार्य शीलक राम

दर्शन -विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र-136119 मो. 8222913065 -- Acharya (Dr.) Shilak Ram Acharya Academy Chuliana (Rohaj) Rohtak (Haryana) Mobile : 9992885894 9813013065 8901013065 www.pramanaresearchjournal.com www.chintanresearchjournal.com acharyashilakram.blogspot.in https://www.facebook.com/acharya.shilakram https://www.jagaranjunction.com.shilakram ORCID-https://orcid.org/0000-0001-6273-2221

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