ग़ज़ल
एक फूल है और एक पत्थर है एक साहिल है एक सागर है।
रेत से बना वफ़ा का आशियां कहीं बह ना जाए ये डर है।
एक और तमन्ना पाली है इस दिल ने वफ़ा निभाने की
तुम चाहो तो बेघर करो मुझे मेरे दिल में तेरा घर है।
चाहत में दुनिया कहती हैं महबूब खुदा बन जाता है
हम तेरा ही सजदा करते हैं दहलीज़ तेरी मेरा सर है।
गर हाथ नहीं हाथों में तो क्या न बात जुबां से कह पाएं
जबतक सांसों की डोरी है यूं ही अपना साथ उमर भर है।
दुनिया की दौलत क्या करना दुनिया की शोहरत क्या करना
जिस जगह पे तू मौजूद रहे मेरा चैन सुकून वहीं पर है।
कुछ तेरे सिवा देखा ही नहीं न कुछ देखने की चाहत है , जानिब,
मेरी जन्नत मेरी दुनिया मेरी मंजिल तेरा दर है।
— पावनी दिक्षित
