थूकिये…मगर ज़रा संभल के!
थूक, हमारी नितांत व्यक्तिगत संपत्ति है। और थूकना हमारा राष्ट्रीय धर्म और चरित्र। वह व्यक्ति कतई भारतीय नहीं हो सकता, जो थूकता न हो। अपितु मेरी यह राय है कि हमारे देश के संविधान में संशोधन कर यह जोड़ देना चाहिए कि जो व्यक्ति थूक नहीं सकता उसे भारतीय नागरिक होने का कोई अधिकार नहीं। इस राष्ट्रीय धर्म का निर्वाह करते हुए हम अपनी व्यक्तिगत संपत्ति को सार्वजनिक बनाकर राष्ट्रहित में दान करते हैं।
इस पवित्र और महान राष्ट्रीय धर्म का निर्वाह नागरिक सज्जनता से करें, अतः शासन ने जहाँ-तहाँ पीकदान की व्यवस्था कर रखी है। फिर भी कुछ पुरुषार्थी आत्माएँ परंपरा का पालन करते हुए अपनी मनपसंद जगह पर थूकती हैं। वरना एक ज़माना तो वह था, जब लोग दान की इस अति पवित्र और कीमती संपत्ति को बटुए में डालकर घूमते थे। शायद घर ले जाकर उससे वे खाद या इत्र भी बनाते हों।
जैसा कि मैंने अर्ज़ किया है-थूकना हमारा राष्ट्रीय धर्म भी है और चरित्र भी। मेरे देश की सड़कें, बसें, ट्रेनें, दीवारें, गलियाँ आदि इसके प्रमाण हैं। कभी-कभी तो किसी सार्वजनिक स्थल पर जाने के बाद यदि मुझे थूक या पीक के दो-चार छींटे दिखाई न दे तो भ्रम होता है कि वह स्थान सार्वजनिक भी है या नहीं। सार्वजनिक स्थानों पर थूक या पीक के निशान हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के गौरव ही नहीं ट्रेडमार्क भी हैं। इस दृष्टिकोण से प्रत्येक भारतीय अपने मुँह में किसी भी स्थान को सार्वजनिक करने की क्षमता लिए घूमता है।
बात उस दिन की ले लीजिए जब मैं अपनी पत्नी के साथ मोटर सायकिल पर कहीं से आ रहा था। बाजू से एक बस गुजरी और उस बस की खिड़की में से निकली एक पीक ने मेरा सार्वजनिकीकरण संस्कार कर डाला। मैं एक पल में प्रायवेट सेक्टर से पब्लिक सेक्टर में स्थानांतरित कर दिया गया था। पीछे बैठी पत्नी को अपनी निजी संपत्ति पर यह किसी का अतिक्रमण-सा लगा। इतना क्रोध तो नेहरू जी को चीन द्वारा भारत की भूमि पर कब्जा करने पर भी न आया होगा। पर क्या कर सकती थी। रास्ते भर उसे पीड़ा सालती रही। उसे ‘अपने माल’ पर यह सार्वजनिकता का ट्रेडमार्क बिल्कुल भी नहीं भा रहा था। घर पहुँचते ही उसने मेरा निजीकरण करने में कोई कसर न छोड़ी।
वैसे थूकना कोई अच्छी बात नहीं है। फिर भी लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार इस धर्म का पालन करते हैं। कोई भी, कहीं भी, कभी-भी, किसी पर भी थूक देता है। कुछ को तो थूकने की बीमारी होती है और कुछेक तो दिनभर में आठ-दस किलो थूक डालते हैं। बस उन्हें थूकने का अवसर मिलना चाहिए। अब कल की ही बात लीजिए ना। संस्कृति के कुछ पहरेदारों ने भाई-बहन को प्रेमी-प्रेमिका समझ उन पर भरे बाजार थूक डाला। उन्हें भ्रम था कि ‘वह जोड़ा’ प्रेम-दिवस’ मना रहा है। रस्सी को साँप समझा गया, सुना था। पर रस्सी, अजगर भी हो सकती है, यह पहला उदारण है।
हमारी मुलाकात उन्हीं में से एक संस्कृति-रक्षक से हुई, तो हमने पूछा- “और आज क्या कार्यक्रम है कलयुग के कन्हैया? आज संस्कृति की किस द्रोपदी का चीरहरण रोकने जा रहे हैं?”
“थूकने जा रहे हैं। आप भी हमारी इस टोली में आ जाइए। सब मिलकर थूकेगें।”
“कहाँ?”-मेरी जिज्ञासा उचकी।
”चलिए, आज का दिन थूकने के लिए सर्वोत्तम है जो साल में एक बार आता है। पुराणों में लिखा है कि आज के दिन जो हमारे साथ थूकेगा उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी, तथा पापों में फिफ्टी परसेंट छूट भी मिलेगी। हम होटलों, डांस-क्लबों, पबों, बारों, बाग-बगीचों में मिलकर थूकेंगे। आपकी तो थूथन भी जोरदार है, ज्यादा थूक निकलेगा। हो सकता है, इसी जनम में मोक्ष मिल जाए!“ उन्होंने मुझे उत्साहित करने का प्रयास किया।
”पर भैया ये तो बड़ी साफ-सुथरे और पवित्र स्थान हैं। यहाँ ऐसे अशोभनीय और घृणित कर्म करोगे तो सीधे नरक जाओगे।“ मैंने समझाने की कोशिश की।
”अरे आपको नहीं पता? ये देखिए न, इन पवित्र स्थानों पर ये नये ज़माने के लौडें-लौंडियाँ, बाँहों में बाँहें डाले ‘प्रेम-दिवस’ मनाने जा रहे हैं। हम सब उन पर चलकर सामूहिक रूप से थूकेंगे। आप भी चलिए हमारे साथ।“ उन्होंने प्रयोजन स्पष्ट किया।
”पर इससे क्या होगा, क्या वे प्रेम करना बंद कर देंगे?“-मैंने पूछा।
”नहीं। पर हमें अपनी संस्कृति को बचाना है। ये लोग ऐसा करेंगे तो राम-कृष्ण की भूमि का क्या होगा? हमारी सदियों पुरानी संस्कृति का क्या होगा? सोचिए जरा।“ आवेश में उनका चेहरा लाल हो गया।
”पर प्रेम करना तो हमारी संस्कृति है। राम-कृष्ण ने तो स्वयं प्रेम किया था। देखिए देशभर में चारों दिशाओं में राधा-कृष्ण के हजारों मंदिर बिखरे पड़े हैं। और क्या इन पर एक दिन थूकने से हमारी संस्कृति बच जाएगी? और यदि थूकने से ही संस्कृति बचती है तो आपने उसी दिन क्यों नहीं थूक दिया जब संस्कृति के वास्तविक भक्षक ये होटल, डांस-क्लब, बार और पब खोले जा रहे थे।“ मैंने चिमटी काटी।
”वे झुंझलाए-शरद जी, आप तो हमेशा बेसिर-पैर की बातें करते हैं। हमें आपसे यह उम्मीद नहीं थी। इनका विरोध करने के बजाय आप तो इनका समर्थन कर रहे हैं। शायद आपको दिखता नहीं। इस देश को पाश्चात्य संस्कृति अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है, दीमक की तरह खा रही है। ये लोग इसी प्रकार प्रेम-प्रदर्शन करेंगे तो हमारे बाल-बच्चों और बहू-बेटियों का क्या होगा?“
”मैं इनका समर्थन नहीं कर रहा हूँ। प्रेम का इस तरह खुलेआम प्रदर्शन करना निसंदेह अशोभनीय और निंदनीय है। वह प्रेम ही क्या जिसे प्रदर्शन की आवश्यकता पड़े? और रही बात पाश्चात्य प्रभाव की तो उस दिन तो आप मदर्स और फादर्स-डे पर अपने बच्चों से बड़े हँसते-हँसते उपहार ले रहे थे। तब आपने विरोध क्यों नहीं किया कि ये हमारे त्योहार नहीं है बल्कि उन पश्चिम के त्यौहार हैं जो अपने माता-पिता को बुढ़ापे में वृद्धाश्रमों में छोड़ आते हैं और एक दिन उन्हें खुश करने के लिए ये त्योहार मना लेते हैं। जब कृष्ण-सुदामा के देश में फ्रेंडशिप-डे का नाटक बाजारू स्तर पर होता है तो आप क्यों नहीं निकलते थूकने?“ मेरी बातें उन्हें पीडि़त कर रही थीं।
”ऐसी बात नहीं है, हम तो अपनी संस्कृति को बचाने की बात कर रहे थे।“ वे थोड़ा हकलाए।
”ऐसी ही बात है। और आपकी बहू-बेटियाँ भी ऐसे स्थानों पर जाती हैं? उन्हें रोकिए। पर रही बात बहू-बेटियों की तो जब हमारी पावन संस्कृति की दहेज की आग में बहुओं को जला दिया जाता है, हमारी पुष्पित-पल्लवित होती संस्कृति में कितनी ही बेटियों को गर्भ में या जन्म के बाद मार दिया जाता है तब आपकी थूक कहाँ चली जाती है? आप इस संस्कृति पर क्यों नहीं थूकते?-मैंने पूछा।
उन्होंने सफाई देते हुए कहा-”हम तो इस पर भी थूकना चाहते हैं लेकिन क्या करे जैसे ही थूकने के लिए मुंह की पिचकारी बनाते हैं हमारी थूक सूख जाती है। और यदि धोखे से थूक की दो-चार बूँदें निकली भी तो हमारे ही दामन पर ….।“
इसके बाद पान चबाते मुँह को उन्होंने सुअर की तरह मुँह बनाया और पास की दीवार पर पीक की पिचकारी दे मारी।
संस्कृति के तथाकथित संरक्षकों पर बहुत करारा व्यंग्य किया है आपने. साधुवाद !
शरद भाई , लघु कथा एक करारा विअंघ है . बहुत ही अछे ढंग से लिखी है . मैं भारती हूँ लेकिन यहाँ रहने से मेरा सर कुछ फिर सा गिया है , पता नहीं कियों मुझे दिली एअर पोर्ट पर उतरते ही इर्द गिर्द देख कर नफरत होने लगती है . मुझे तो सब पता है किओंकि मैं इंडिया का ही बौरन हूँ लेकिन बच्चे देख कर घबरा जाते हैं कि शाएद वोह होली के तिओहार पर आये हैं और कपडे रंग बिरंगे हो जाने से डरते हैं . जरा जो पिछाब करते हैं उन के बारे भी लघु कथा लिख देना . इंतज़ार रहेगा .