गजल
साँस अटकी है, कसक बाकी है
और जीने की ललक बाकी है
गो नवाबी चली गई कब की
चाल में उनकी ठसक बाकी है
राहगीरों ने कुचल डाला भले
फूल में फिर भी महक बाकी है
बेटे तो कब का साथ छोड़ गए
बूढ़ी आँखों में चमक बाकी है
कितना समझाया बुज़ुर्गों ने उसे
नज़रें नीची हैं सनक बाकी है
नोच डाला भले शिकारी ने
पंख टूटे हैं , चहक बाकी है
कितने ही पोथे पढ़े हों ‘चन्द्रेश’
लगता है एक सबक बाकी है
— चंद्रकांता सिवाल ‘चन्द्रेश’