पहली मिलन
चहल-पहल संध्या में,
हो गया शान्त!
सब लोग अपने निद में,
सूख भोगने लगे।
बेचैन था-
मिलने की आस में,
रात में दबे पांव चलते बने
प्रिये के द्वार की तरफ।
शनैः प्रवेश करते है घर में ,
लेटी हुई थी पलंग पर,
रूदन करके थकान में,
या परिजन के,
विछुड़ने के अफसोस में,
पहली बार सहमते हुए,
उसके बदन को,
छुआ उंगली के पोरो से,
अचानक घबराकर –
बैठ गई उतरकर बेड से,
डरी हुई सी,
सहमी हुई सी,
दीख रही थी,
नई दुल्हन।
विछुड़न से मिलन की ओर,
बढ चली थी उसकी जिंदगी।
विरह-मिलन का अद्भुत मेल,
यह कैसा है कुदरत का खेल।
कली खिली थी जैसे बेल,
अमल कोमल तरुणी सी।
मतवाली लग रही थी।
यौवन का मदिरा पिये।
मधुर-मधुर थे उसके दोनों अधर,
किन्तु गम्भीरता का भाव लिये।
खड़ी थी चुपचाप।
मैं उसके पास जाकर,
उसके अन्दर शब्दों का भाव भरा,
बैठा दिये उसको नवीन पलंग पर,
मसल दिये गोरे कपोल गोल।
चौक पड़ी वह दुल्हन।
नम्र मुख हँसीं खिली।
खेल रंग प्यारे संग,
हुआ था ऐसा ही पहली मिलन।
@रमेश कुमार सिंह /०४-११-२०१५
रमेश जी ,वाह किया वोह समय बाँध दिया ,यादें ताज़ा हो गईं .
शुक्रिया श्रीमान जी।