कविता
अच्छे हैं इंसान यहां सब किसीको कम ना आँको तुम
औरों को बुरा कहने से पहले ज़रा खुद में झाँको तुम
हालात बना देते हैं होता जन्म से बुरा कोई नहीं
कौन सी ऐसी आँख है जो हंसने से पहले रोई नहीं
नेकी और बदी में बस थोड़ी सी दूरी होती है
गलत काम के पीछे अक्सर कुछ मजबूरी होती है
रोटी और उसूलों की जंग यहाँ सदियों से जारी है
लेकिन आग पेट की सारे आदर्शों पर भारी है
अपनी कमियों को तो दुनिया की नज़रों से छुपाते हैं
लेकिन किसी की एक भूल पर न्यायाधीश बन जाते हैं
किसी को मुजरिम कहने का तुमको कोई अधिकार नहीं
वो ही पहला पत्थर मारे जो खुद गुनाहगार नहीं
बुरा ना करो बुरा ना कहो तुम अपना दिल साफ करो
माफ जैसे करते खुद को औरों को भी माफ करो
— भरत मल्होत्रा
वाह
बेजोड़