अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्म-मरण-जन्म के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध
ओ३म्
मनुष्य संसार में जन्म लेता है, अधिकतर 100 वर्ष जीवित रहता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिस संसार व पृथिवी पर हम रहते हैं उसे हमने व हमारे पूर्वजों ने बनाया नहीं है अपितु उन्हें यह सृष्टि बनी बनाई मिली थी। इस संसार को किसने बनाया, इसका शास्त्र व बुद्धि संगत वैज्ञानिक उत्तर है कि इसे एक अदृश्य, अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक सत्ता ईश्वर ने बनाया है। वह ईश्वर जो जीवात्माओं को मनुष्य आदि योनियों में जन्म देता है, उनका पालन-पोषण करता है और शरीर के निर्बल व वृद्ध हो जाने पर उसकी आत्मा को शरीर से निकाल कर पुनः व वारंवार मनुष्य आदि योनियों में नया जन्म देता है। यह ऐसा ही होता है जैसे कि हम पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करते हैं। साधारण मनुष्य जन्म लेकर व कुछ पढ़ाई लिखाई करके अपनी कुल व समुदाय की परम्परा व रीति-रिवाजों के अनुसार किसी मत व सम्प्रदाय की कुछ सत्यासत्य मान्यताओं के अनुसार कर्म करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर स्वयं को धन्य समझ लेते हैं परन्तु कुछ प्रखर बुद्धि व बुलन्द जीवात्मा वाले लोग मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं, मेरे जन्म का उद्देश्य क्या है? मरने के बाद लोग कहां जाते हैं, क्या गर्भवास, जीवन में आने वाले मृत्यु आदि के दुःखों से बचा जा सकता है? जैसे अनेकानेक प्रश्नों पर विचार करते हैं और इसके लिए अपनी समस्त सामर्थ्य को लगाते हैं। इससे उनको जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसी के अनुसार वह अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे मनुष्यों में एक सर्वोपरि नाम है और वह है स्वामी दयानन्द सरस्वती। संसार के अनेक बुद्धिमान अपने गुरुओं से यह प्रश्न करते हैं व कुछ पुस्तकों एवं शास्त्रों आदि का अध्ययन करते हैं तो उन्हें इसका उत्तर मिलता है कि संसार में तीन सत्तायें हैं, ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर आदि गुणों वाला है। वह सूक्ष्म जीवात्माओं को उनके जन्म-जन्मान्तरों के कर्मानुसार मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म देकर उसके पूर्व कृत कर्मों का भोग कराता है। सिद्धान्त है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। अतः हम मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में जन्म लेकर उस योनि के शरीरों की अवधि पूरी होने पर मृत्यु को प्राप्त होते जाते हैं। शेष कर्मों का फल भोगने के लिए हमारा पुनः जन्म होता है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनको शास्त्रों व जन्म-मृत्यु विषयक ज्ञान तो होता नहीं, कुछ छोटी-मोटी बातों के आधार पर पुनर्जन्म का खण्डन कर देते हैं। वेदों का अध्ययन करने की उन्हें फुर्सत नहीं। वह समझते हैं कि वह जितना जानते हैं उतना ही पर्याप्त है और उनके अलावा सभी अज्ञानी व उनसे ज्ञानस्तर में निम्नकोटि के हैं।
जीवात्मा जन्म लेता है और माता-पिता बनकर अपनी सन्तानों को जन्म देता है। यह तथ्य है परन्तु जीवात्मा को मनुष्य जन्म ईश्वर से मिलता है। उसी ने इस सृष्टि को रचा है। अतः इन प्रश्नों का उत्तर उसी ईश्वर से मिल सकता है। उससे यदि उत्तर जानना है तो वह समाधि अवस्था में जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त ईश्वर ने ही सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। उससे भी सहायता ली जा सकती है। वेदों के अनुसार जीवात्मा को जन्म व मृत्यु ईश्वर के द्वारा प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म एक सत्य, तर्क संगत व वैज्ञानिक सिद्धान्त है। महर्षि दयानन्द वेदों के उच्च कोटि के विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों का भाष्य करने का उपक्रम किया था और सबसे पहले चारों वेदों की भूमिका ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक ग्रन्थ लिखकर वेदभाष्य कार्य को आरम्भ किया था। इस ग्रन्थ का उन्नीसवां अध्याय ‘पुनर्जन्मविषय’ है। आज इस अध्याय में लिखे उनके उपदेशों को ही प्रस्तुत कर हम पुर्नजन्म का स्वरूप पाठकों के समस्त प्रस्तुत कर रहे हैं।
महर्षि दयानन्द ने पुनर्जन्म विषयक ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के मन्त्रों सहित निरुक्त व न्याय दर्शन आदि के वचन उद्धृत किये हैं। यहां हम केवल ऋग्वेद के दो मन्त्रों को देकर सभी वचनों का हिन्दी भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। ऋग्वेद के मन्त्र हैं ‘असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम!। ज्योक् पश्येम सूय्र्यमुच्चरन्तमनुमते मृळया नः स्वस्ति।। एवं दूसरा मन्त्र ‘पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पुनद्र्यौर्देवी पुनरन्तरिक्षम्। पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु पुनः पूषा पथ्यां३ या स्वस्तिः।।’ इन मन्त्रों का तात्पर्य है कि हे सुखदायक परमेश्वर ! आप कृपा करके पुनर्जन्म अर्थात् परजन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रियां स्थापन कीजिये। प्राण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, बल, पराक्रम आदि युक्त शरीर पुनर्जन्म में दीजिये। हे जगदीश्वर ! इस संसार अर्थात् इस जन्म और परजन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों तथा हे भगवन् ! आपकी कृपा से सूर्यलोक और आपको विज्ञान तथा प्रेम से हम सदा देखते रहें। हे अनुमते=सबको मान देने हारे सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये जिससे हम लोगों का कल्याण हो। दूसरे मन्त्र का अर्थ-हे सर्वशक्तिमन् ! आपके अनुग्रह से हमारे लिये वारंवार पृथिवी प्राण को, प्रकाश चक्षु को, और अन्तरिक्ष स्थानादि अवकाशों को देते रहें। पुनर्जन्म में सोम अर्थात् ओषधियों का रस हमको उत्तम शरीर देने में अनुकूल रहे तथा पुष्टि करनेवाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण करनेवाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे।
महर्षि दयानन्द द्वारा यजुर्वेद के एक तथा अथर्ववेद के दो उद्धृत मऩ्त्रों का अर्थ इस प्रकार है। हे सर्वज्ञ ईश्वर ! जब जब हम जन्म लेवें, तब तब हमको शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और श्रोत्र प्राप्त हों। जो विश्व में विराजमान ईश्वर है, वह सब जन्मों में हमारे शरीरों का पालन करे। सब पापों के नाश करनेवाले आप हमको बुरे कामों और सब दुःखों से पुनर्जन्म में अलग रक्खें। हे जगदीश्वर आप की कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिय मुझ को प्राप्त हों अर्थात् सर्वदा मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे अर्थात् प्राणों को धारण करनेहारा सामथ्र्य मुझ को प्राप्त होता रहे जिससे दूसरे जन्म में भी हम लोग सौ वर्ष वा अच्छे आचरण से अधिक आयु तक भी जीवें। सत्यविद्यादि श्रेष्ठ धन भी हमें पुनर्जन्म में प्राप्त होते रहें। सदा के लिये ब्रह्म जो वेद है, उसका व्याख्यानसहित विज्ञान तथा आप ही में हमारी निष्ठा बनी रहे। सब जगत् के उपकार के अर्थ हम लोग अग्निहोत्रादि यज्ञ को करते रहें। हे जगदीश्वर ! हम लोग जैसे पूर्वजन्मों में शुभ गुण धारण करनेवाली बुद्धि से उत्तम शरीर और इन्द्रियों से युक्त थे, वैसे ही इस संसार में पुनर्जन्म में भी बुद्धि के साथ मनुष्य देह के कृत्य करने में समर्थ हों। ये सब शुद्ध बुद्धि के साथ मुझको यथावत् प्राप्त हों। हम लोग इस संसार में मनुष्य जन्म को धारण करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सदा सिद्ध करें और इस सामग्र से आपकी भक्ति को प्रेम से सदा किया करें। ऐसा करके किसी जन्म में हमको कभी दुःख प्राप्त न हो।
मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है। अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता है। पूर्वजन्म में किये हुए पाप पुण्य के फलों का भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़़ के वायु के साथ रहता, पुनः जल ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य्य में प्रवेश करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है वैसा ही यथावत् जान के बोलता है और धर्म ही में यथावत् स्थित रहता है, वह मनुष्ययोनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट पतंग पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है। इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष आदि का होना। इनमें मनुष्यशरीर के तीन भेद हैं-एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विद्याओं को पढ़के विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्यशरीर का धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्यशरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिये है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण करना, पुनः शरीर को छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, वारंवार होता है।
जैसा वेदों में पूर्वापरजन्म के धारण करने का विधान किया है वैसा ही निरुक्तकार ने भी प्रतिपादन किया है। उनके अनुसार जब मनुष्य को ज्ञान होता है तब वह ठीक ठीक जानता है कि मैंने अनेक वार जन्ममरण को प्राप्त होकर नाना प्रकार के हजारों गर्भाशयों का सेवन किया है। अनेक प्रकार के भोजन किये हैं, अनेक माताओं के स्तनों का दुग्ध पिया, अनेक माता पिता और सुहृदों को देखा है। मैंने गर्भ में नीचे मुख ऊपर पग इत्यादि नाना प्रकार की पीड़ाओं से युक्त होके अनेक जन्म धारण किये। परन्तु अब इन महादुःखों से तभी छूटूंगा कि जब परमेश्वर में पूर्ण प्रेम और उसकी आज्ञा का पालन करूंगा, नहीं तो इस जन्मरणरूप दुःखसागर के पार जाना कभी नहीं हो सकता। योगशास्त्र में भी पुनर्जन्म का विधान किया है। हर एक प्राणी की यह इच्छा नित्य देखने में आती है कि मैं सदैव सुखी बना रहूं। मरूं नहीं। यह इच्छा कोई भी नहीं करता कि मैं न रहूं अर्थात् मर जाऊं। ऐसी इच्छा पूर्वजन्म के अभाव से कभी नहीं हो सकती। यह ‘अभिनिवेश’ क्लेश कहलाता है जो कि कृमिपर्य्यन्त को भी मृत्यु का भय बराबर होता है। यह व्यवहार पूर्वजन्म की सिद्धि को जनाता है। न्यायदर्शन के वात्स्यायन भाष्य में भी कहा है कि जो उत्पन्न होता है अर्थात् शरीर को धारण करता है, वह मरण अर्थात् शरीर को छोड़ के, पुनरुत्पन्न दूसरे शरीर को भी अवश्य प्राप्त होता है।
अनेक मनुष्य ऐसा प्रश्न करते हैं कि जो पूर्वजन्म होता है, तो हमको उसका ज्ञान इस जन्म में क्यों नहीं होता? इसका उत्तर है कि आंख खोल के देखों कि जब इसी जन्म में जो जो सुख दुःख तुमने बाल्यावस्था में अर्थात् जन्म से पांच वर्ष पर्य्यन्त पाये हैं, उनका ज्ञान नहीं रहता अथवा जो कि नित्य पठन पाठन और व्यवहार करते है, उनमें से भी कितनी ही बातें भूल जाते हैं तथा निद्रा में भी यही हाल हो जाता है कि अब के किये का भी ज्ञान नहीं रहता। जब इसी जन्म के व्यवहारों को इसी शरीर में भूल जाते हैं, तो पूर्व शरीर के व्यवहारों का कब ज्ञान रह सकता है? ऐसा भी प्रश्न करते हैं कि जब हमको पूर्वजन्म के पाप पुण्य का ज्ञान नहीं होता और ईश्वर उनका फल दुःख वा सुख देता है, इससे ईश्वर का न्याय वा जीवों का सुधार कभी नहीं हो सकता। इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ज्ञान दो प्रकार का होता है–एक प्रत्यक्ष व दूसरा अनुमान आदि से। जैसे कि एक वैद्य और दूसरा अवैद्य, इन दोनों को ज्वर आने से वैद्य तो इसका पूर्व निदान जान लेता है और दूसरा नहीं जान सकता। परन्तु उस पूर्व कुपथ्य का कार्य जो ज्वर है, वह दोनों को प्रत्यक्ष होने से वे जान लेते है कि किसी कुपथ्य से ही यह ज्वर हुआ है, अन्यथा नहीं। इसमें इतना विशेष है कि विद्वान् ठीक ठीक रोग के कारण और कार्य को निश्चय करके जानता और वह अविद्वान् कार्य को तो ठीक ठीक जानता है परन्तु कारण में उसको यथावत् निश्चय नहीं होता। वैसे ही ईश्वर न्यायकारी होने से किसी को विना कारण से सुख वा दुःख कभी नहीं देता। जब हम को पुण्य पाप का कार्य सुख और दुःख प्रत्यक्ष हैं, तब हमको ठीक निश्चय होता है कि पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के विना उत्तम मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्धि आदि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते। इससे हम लोग निश्चय करके जानते हैं कि ईश्वर का न्याय और हमारा सुधार ये दोनों काम यथावत् बनते हैं। प्रकरण की समाप्ति पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि उपर्युक्त विवेचन व विश्लेषण से बुद्धिमान् लोग पुनर्जन्म विषयक सिद्धान्त व उससे सम्बन्धित सभी पहलुओं को अपने विचार व चिन्तन से यथावत् जान लेवें।
हम अनुभव करते हैं कि इस लेख में पुनर्जन्म विषयक वेद व शास्त्रों में पुनर्जन्म के विधान सहित इसके सभी पहलुओं का युक्ति व तर्कों के आधार पर स्पष्टीकरण हो गया है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त मनुष्यों को पापकर्मों से दूर रखता है। यदि हम कोई भी बुरा काम करेंगे तो ईश्वर की व्यवस्था से उसका फल हमें अवश्य ही भोगना होगा। यदि बुरे काम अधिक होंगे तो हमें परजन्म में पशु, पक्षी, कीट, पतंग, सुअर, सर्प व गधा आदि भी बनना पड़ सकता है। यह भी विचारणीय है कि जीवात्मा और ईश्वर अनादि व नित्य हैं और यह सृष्टि भी अनन्त काल से बनती व बिगड़ती चली आ रही है। इस अनन्त काल में हम अनेकानेक बार सभी योनियों में रहकर अपने कर्मानुसार सुख व दुःख भोगते रहे हैं और आगे भी भोगेंगे। मनुष्यादि जन्म मरण सहित अनेक बार हम मुक्ति की अवस्था में भी गये व रहे हैं। क्या कोई मनुष्य परजन्म में पशु, घोड़ा व गधा बनना चाहेगा, यदि नहीं हो उसे सद्कर्म ही करने होंगे। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
अच्छा ज्ञानवर्धक लेख !
प्रिय मनमोहन भाई जी, सही कहा- ”जब मनुष्य को ज्ञान होता है तब वह ठीक-ठीक जानता है.” धृतराष्ट्र ने जब श्रीकृष्ण जी से अपने जन्मांध होने का कारण जानना चाहा, तो श्रीकृष्ण जी को उपदेश देने के बजाय दिव्य दृष्टि प्रदान की, ताकि वह खुद देख ले. 108 वें जन्म का फल इस जन्म में उसको जन्मांध होने के रूप में मिला था. तब बालक रूप में धृतराष्ट्र ने ने एक फूल पर पंख सिकोड़े बैठी तितली की दोनों आंखों में कांटा चुभा दिया था. अति ज्ञानवर्द्धक लेख के आभार.
नमस्ते, धन्यवाद एवं आभार आदरणीय बहिन जी। लेख के पक्ष में आपकी प्रतिक्रिया अति सराहनीय है। मुझे इस अवसर एक कथा याद आ गई। आर्य समाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री चंचल कुमार के देहरादून आर्यसमाज में भजन हो रहे थे। मैं कार्यक्रम में उपस्थित था। उन्होंने बताया कि किसी स्थान पर उनके कार्यक्रम में एक बहुत ही सुन्दर कन्या उपस्थित थी। उसके व्यवहार से उन्होंने जाना की यह अपंग है। कार्यक्रम के बाद उन्होंने उससे बातचीत की। उसने बताया की वह नेत्रांध है। यह पूछने पर कि क्या वह जन्म से ही अंधी है तो उसने बताया की नहीं। वह बचपन में बहुत चंचल और शैतान थी। एक बार उसने एक सुन्दर चिड़िया के बच्चे को पकड़ लिए। एक तिनका लिया और शरारत करते हुवे उसकी दोनों आँखें फोड़ दी। कालांतर में यह लड़की अंधी हो गई। इस लड़की ने यह स्वीकार किया था कि यह उसके उसी कर्म का फल है। इस पर गीतकार और गायक श्री चंचल कुमार ने एक बहुत भाव प्रधान गीत गया था। बोल थे “कर्मों की है ये माया, कर्मो के खेल सारे] कर्मो के इस जहाँ में क्या क्या अजब नज़ारे” मैंने इस गीत की अपने मोबाइल में रिकॉर्डिंग की थी। मुझे यह गीत बहुत प्रिय है। यह पंक्तिया लिखते हुवे भी यह गीत बज रहा है। यदि आप पसंद करें तो ९ मिनट के इस भजन को यूट्यूब पर अपलोड कर सकता हूँ। लिंक के लिए आपको मुझे अपना ईमेल सूचित करना होगा। बहिन जी आपका हार्दिक धन्यवाद।
सही उदाहरण दिया है आदरणीय ! यह तो दुनिया है जैसा बोएँगे, वैसा काटेंगे। इस हाथ दे, उस हाथ ले।