कहानी

सोफा

सोनल दीदी को मैंने बहुत कहा कि एक मामूली सोफा ही खरीद लें। कॉलोनी में सबके पास सोफा है। उनके घर में किसी को बिठाने के लिए एक चेयर तक नहीं है। कम से कम चेयर ही खरीद लें। मगर नहीं; सोनल दीदी न मानी। उन्होंने ठान रखी थी कि जब तक उन्हें उनका मन लुभाने लायक सोफा; ऐसा सोफा जो उनके ड्राइंग रूम की न केवल शोभा बढ़ाए बल्कि उसमें चार चांद लगाए, नहीं मिलेगा वह नहीं खरीदेंगी। कम से कम दो-चार कुर्सीयां तो खरीद ही सकती हैं। मगर वह भी नहीं। कुर्सियां खरीद लेंगी तो सोफा आने के बाद उसके आगे कुर्सियां मुंह चिढ़ाती नज़र आएंगी और फिर सोफा आने के बाद उन्हें हटाएंगी कहां।

सोनल दीदी को घर सजाने का कितना शौक है। हर चीज़ उन्हें पिच परफेक्ट चाहिए होती है। और सच में जब वो सोफा लाईं तो दि बेस्ट सोफा था। उसे देखने के लिए हम कॉलोनी की सभी औरतें किसी न किसी बहाने से सोनल दीदी के यहाँ हो आती थीं। और वो भी तो यही चाहती थीं सो किसी न किसी बहाने से सबको घर बुलाती रहती थीं।

मैंने पहली बार देखा तो मैं भी देखती रह गई। मैंने न जाने कितने सोफे देखे होंगे। मगर उसकी पहली छवि है कि आज बीस साल बाद भी आँखों से जाती ही नहीं। सिक्स सीटर कोर्नर सोफा था वह। वेल्वेट के खूबसूरत कपड़े से बना था जिसमें बीच-बीच में चमकीले बटन देकर गद्दे को दबाया था जिससे गद्दे पर खूबसूरत मैट्रिक्स बन रहा था। गद्दे के दोनों किनारों पर ऐसे गद्दे लगे थे जैसे वेल्वेट के बने दो राजसी मसनद जड़े हों जिनसे रेश्मी धागों के गुच्छे लटक रहे थे। एक मोटी सुनहरी रस्सी सोफे के पायताने एक छोर से दूसरी छोर तक चिपकाई हुई थी जिसके नीचे सोफे के चारो ओर जमीन को छूती रेश्मी धागों की झालर लटक रही थी। उफ्फ नज़र न लगे दीदी के सोफे को।

मगर नज़र कैसे लगती, दीदी हरदम चौकन्नी जो रहती। कभी बच्चों को सोफे पर खाने के लिए कुछ नहीं देती थीं। यहां तक की पढ़ाई-लिखाई तक वहां नहीं करने देती थी कि कहीं पेन-पेंसिल से सोफे पर कोई अपनी कलाकारी न दिखाने लग जाए। खास सोफे के लिए उन्होंने वैक्यूम क्लीनर लिया जिसे वो हफ्ते-दो-हफ्ते में सोफे पर चला दिया करती थीं।

यही कारण था कि दीदी का सोफा पांच साल बाद भी वैसे का वैसे ही है। बच्चे बड़े हो चले, शक्ल बदलने लगी, अब उतनी नादानी नहीं करते, मगर सोफा जस का तस। अब मेरे पति का तो ट्रांसफर हो गया इसलिए हमें वो शहर छोड़कर जाना पड़ा। मगर सोचा नहीं था कि इस सोफे को दुबारा देखूँगी। दीदी से दुबारा मिलने की उम्मीद तो थी क्योंकि हम सब घूम-फिरकर; अलग-अलग ट्रांसफर पाकर भी एक-दूसरे से टकरा ही जाते थे।

पता चला बीस साल बाद हम जिस जगह आएं हैं दीदी वहीं अपना मकान बनाकर सेटल हो गई हैं। उस दिन उनका मकान देखने गयी थी। बहुत खूबसूरत मकान बनवाया है दीदी ने। और उससे भी ज्यादा ख़ूबसूरती से उसे सजाया है। मगर उनकी ड्रांइग रूम की शोभा आज भी वही सोफा बढ़ा रहा था। मैंने उसे ध्यान से देखा। उसके रेश्मी धागे मैले पड़ गए थे। सोफे का वेल्वेट घिस चला था। सीटों के बीचोंबीच जगह-जगह रगड़ खाने के निशाने थे। मसनद और पायताने लटक रहे रेश्मी गुच्छे अब उतने घने नहीं रहे, लगा जैसे उसे जगह-जगह से नोच दिया गया हो। पायताने चिपकाई हुई मोटी रेश्मी का गोंद जगह-जगह से छूट गया था और उसने यहां-वहां लटकना शुरू कर दिया था। इन सबके बावजूद वह किसी पुरानी हिरोइन की तरह चमक रहा था जिसके चेहरे में अब भी पानी था, तेज और चमक थी, पुराने दिनों की छाप ताज़ा थी और जिसका सौन्दर्य बुढ़ापे को बराबर पटकनी दे रहा था।

दीदी के यहाँ आने-जाने का मेरा सिलसिला चल निकला। मैंने उस दिन उस सोफे में धसते हुए निमंत्रण स्वीकार किया। निमंत्रण था दीदी के लड़के सोहन के विवाह का। सोहन बहुत खूबसूरत दुल्हन लाया था और वह दुल्हन शादी के बहुत से सामानों के साथ-साथ एक नया खूबसूरत सोफा लाई थी।

पुराने सोफे के पहले लुक को जब याद करती हूँ तो उसके आगे यह नया सोफा कुछ भी नहीं। मगर फिलहाल तो पुराने सोफा का पुरानापन साफ झलक रहा था और सफेद पीवीसी का चांद सा जगमगाता नया सोफा अपनी ही चांदनी छिटका रहा था। साफ़ था कि ड्राइंग रूम में नए सोफे को जगह लेनी चाहिए। मगर पुराने सोफे को ठिकाने लगाना था। तय हुआ कि किसी पुराने फर्नीचर वाले को बेच दिया जाए क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें तो रह नहीं सकती और घर तो घर है कोई फर्नीचर की दुकान नहीं जहां कई सारे फर्नीचर एक साथ शोभायमान हो सकें।

जब तक पुराने सोफे का कोई वाजिब दाम नहीं मिलता या वाजिब दाम देने वाला पुराने फर्नीचर का खरीदार नहीं मिल जाता तब तक के लिए उसे आंगन के चारों ओर बने दालान के किसी भी कोने में रखा जा सकता था। सो रख दिया गया।

मगर एक दिन आंधी-तूफान के साथ मूसलाधार वर्षा हुई। बारिश इतनी ज़ोरदार थी कि पानी की बौछारें दालान में घुस आईं। मखमली-मखमली सोफा जिसे पानी से एलर्जी थी, वीरगति को प्राप्त होता सा दिखने लगा। सोफे में भीतर तक पानी घुस गया था। उसकी रूई भीगकर भारी हो गई थी और उसमें लगी लकड़ियां गीली हो चुकी थी। इस भारीपन और गीलेपन के बीच सोफा दम तोड़ता नज़र आ रहा था।

वैसे तो अब सोफे में कोई जान नहीं बची थी और न ही कोई इसे इस्तेमाल कर सकता था। फिर भी अगले दिन सुबह जब मैं किसी काम से वहाँ पहुंची तो मैंने देखा कि उसे धूप में रखने के विचार से सर्वेंट क्वार्टर के पास एक कोने में रख दिया गया।

अब सोफे की हालत ऐसी हो गई थी कि पुराने फर्नीचर वाले ने भी लेने से मना कर दिया। अब तो केवल इसे कबाड़ी को ही दिया जा सकता था। जब कबाड़ी को ही देना है तो फिर जल्दी क्या है, सूखने दिया जाए उसे धूप में दो-चार दिन। और वो दो-चार दिन दो-चार हफ्तों और फिर महीनों में बदल गए।

सोनल दीदी का शानदार सोफा अब कबाड़ हो चुका था। मैंने उसे देखा था कि कितने करीने से रखा जाने वाला सोफा समय पलट जाने पर एक कोने में उपेक्षित सा पड़ा हुआ था। मैं यूँ ही टहलते हुए उसके पास चली गई थी। पाया कि उसमें पच्चीसों चूहों ने अपना घर बना लिया था। फटे मखमल के कपड़े से गंदी-मैली रूई बाहर निकल आई थी जिसमें कीड़े रेंग रहे थे।

सुनहरे बटनों वाला खूबसूरत वेल्वेट से बना और रेश्मी धागों की कारीगरी से सजा वह सोफा इस हालत में जीवन की क्षणभंगुरता के दर्शन करा रहा था। यहाँ कुछ नहीं टिकता, न मामूली, न खास।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com