लघुकथा

माटी की बन्नो

“अम्मा, तुम बहुत गन्दी हो , रोज़ तड़के ही उठा देती हो फिर पढ़ने बिठा देती हो| घर के कार्यों में भी तुम मुझे लगा देती हो| पता है! मेरी संगिनियाँ कहतीं हैं उनकी माँ तो घर का सारा काम करतीं हैं और वह कुछ नहीं करतीं| बस एक तुम ही हो जो मुझे प्यार नहीं करतीं | पापा भी घर पर नहीं रहते, जब देखो टूर पर रहते हैं , आने दो उनको सब बता दूंगी तुम कितना परेशान करती हो|”

” अब चुप हो जाओ, पापा की बेटी, वरना मारूंगी, और जाओ पढ़ने बैठो|”

” आने दो पापा को शाम को सब बता दूंगी |”

“ऐ जी, सुनती हो, क्या कह रही है बिटिया की तुम इससे काम करवाती हो! एकलौती संतान है यह अपनी क्यों अभी से इसके साथ ऐसा व्यवहार करती हो? पता नहीं किस मिट्टी की बनी हो तुम| घर आते से ही सारा मूड खराब कर देती हो|”

“सुनो जी, बेटी अब सयानी होती जा रही है, मैं नहीं चाहती की कल को कोई अपनी लाडो से यह कह दे की कैसी ‘ माटी की बन्नो’ है यह| मैं माँ हूँ कोई कसाई नहीं |”

कल्पना भट्ट 

कल्पना भट्ट

कल्पना भट्ट श्री द्वारकाधीश मन्दिर चौक बाज़ार भोपाल 462001 मो न. 9424473377