धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

साईं मुस्लिम या हिन्दू?

विगत कई वर्षों से हिन्दू मंदिरों में साईं बाबा की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा-अर्चना की जाने लगी है। संभवत ऐसा कोई शहर न होगा जहाँ के पहले से स्थापित मंदिरों में साईं बाबा का प्रवेश न हुआ हो। मेरा दावा है कि साईं बाबा को पूजने वालों ने ऐसा कभी नहीं सोचा की वे साईं की मूर्तियों की पूजा क्यों करते हैं? कुछ ने साईं के चमत्कारों के विषय में टीवी पर देखा होगा। कुछ ने देखा देखी जाना शुरू कर दिया होगा। मगर किसी ने साईं का कभी चरित्र तक नहीं पढ़ा होगा।

साईं बाबा का प्रथम मंदिर महाराष्ट्र प्रदेश के क़स्बा शिरडी में बनाया गया था। श्री गोविन्दराव रघुनाथ दाभोलकर (१८५९-१९२९ ई•) ने, जिन्हें हेमाडपन्त भी कहा जाता है, मराठी भाषा में साईं बाबा के जीवन पर “श्री सांई सच्चरित” नामक पुस्तक लिखी थी जो रामचन्द्र आत्माराम तर्खड, श्री साईं-लीला कार्यालय, ५ सेंट मार्टिन्स रोड, बान्द्रे द्वारा सन् १९३० में प्रकाशित की गई थी।कालान्तर में श्री शिवराम ठाकुर द्वारा किया हुआ इसका हिन्दी अनुवाद “श्री साईं सच्चरित्र” शीर्षक से श्री साईं बाबा संस्थान, शिरडी ने सन् १९९९ ईसवी में प्रकाशित किया था। इसी प्रकार विवेक श्री कौशिक विश्वामित्र ने भी एक “श्री साईं सच्चरित्र” लिखा है जिसे पूजा प्रकाशन, सदर बाज़ार, दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इसी प्रकाशक ने ४-१/४” × ५-१/४” साइज़ की एक पुस्तिका “श्री साईं कृति” (कुल ४६ पृष्ठ) भी प्रकाशित की है। इसके रचनाकार हैं : सुरेन्द्र सक्सैना और अमित सक्सैना।

साईं के प्रति अन्धभक्तिपूर्ण लेखन

शिरडी के साईं बाबा के प्रति अन्धभक्ति से भरी इस पुस्तिका की भूमिका में सुरेन्द्र सक्सैना की ओर से कहा गया है –

“मैं बाबा का एक-निष्ठ भक्त १९६७ से हूं। मैंने पूरे १० साल बाबा की भक्ति ज़रूर की। •• करुणानिधान श्री साईं बाबा ने १९७७ में गुरुवार के दिन प्रातः पौने चार बजे मेरे घर में मुझे दर्शन देकर मुझे अपनी लीलाओं का गुणगान करने की आज्ञा प्रदान की। •• मैं एक बार १९९७ में बीमार हुआ। मेरे हृदय की चारों नाड़ियां लगभग बन्द थीं। इस दौरान बाबा मेरे साथ रहे। बाबा के चमत्कार, उनका आशीर्वाद मेरे ऊपर कैसे रहा, ये मैं फिर कभी लिखूंगा। जनवरी १९९८ में मेरी बाय-पास सर्जरी हुई जो कि बहुत जटिल होने के बाद सफल रही” (श्री साईं कृति, पृष्ठ ९-१०)।

यहां पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उपरोक्त पुस्तकों में जब साईं बाबा की “कृपा” से अनेक लोगों के दुःख दूर होने का चमत्कारिक वर्णन किया गया है तो फिर १९६७ से साईं बाबा के प्रति अपनी एक-निष्ठ भक्ति का परिचय देने वाले भक्त-लेखक को जनवरी १९९८ में बाय-पास सर्जरी कराने की नौबत क्योंकर आई !! क्यों नहीं घर में दर्शन देने वाले “करुणानिधान” साईं बाबा ने “चमत्कार” करके अपने भक्त के दुःख-रोग दूर कर दिए !!

“श्री साईं कृति” नामक पुस्तिका के ये अन्धभक्त लेखक इसके पाठ की फलश्रुति का लाभ गिनाते हुए लिखते हैं –

“श्री साईं कृति का पाठ जो भक्त प्रतिदिन श्रद्धा व भक्ति से युक्त होकर करेगा या सुनेगा उसके समस्त दाप-ताप-संताप बाबा हर लेंगे। श्री साईं कृति दैहिक एवं मानसिक पीड़ाओं से मुक्ति दिलाकर चिरानन्द की प्राप्ति कराएगी।”

साईं बाबा को हिन्दू देवताओं और गुरु नानक का रूप बताना

इस अन्धभक्ति से भरभूर पुस्तिका के पृष्ठ १७ पर साईं बाबा की स्तुति करते हुए लिखा है :

राम कृष्ण दोनों तुम्हीं हो। शिव हनुमन्त प्रभु तुम्हीं हो।२१।दत्तात्रेय अवतार तुम्हीं हो। पीर पैग़म्बर रहमान तुम्हीं हो।२२।नानक रूप धरि तुम आये।
सच्चा सौदा कर दिखलाए।२३।साईं चरणन महूं तीरथ सारे।विस्मित होय गणु नीर बहाए।२४।

यहां पर लेखक द्वय ने जहां साईं बाबा को राम, कृष्ण, शिव, हनुमान् और दत्तात्रेय स्वरूप बताया है वहां गुरु नानकदेव का स्वरूप भी दर्शाया है। इन लेखकों ने अपनी पुस्तिका के पृष्ठ १६ पर छन्द १२ में यह भी लिखा है –

बाबा तुम हो धाम करुणा के।तुम ही हरत दारुण दुःख जग के।।

अब यहां विचारने की बात यह है कि राम-कृष्ण आदि इन महान् विभूतियों का कथित स्वरूप बने साईं बाबा ने जब अपने भक्त-लेखक के दाप-ताप-संताप या दारुण दुःख नहीं हरे और बाय-पास सर्जरी कराने तक की नौबत आ गई तो तुम जैसे सामान्य कोटि के लेखकों की लिखी “श्री साईं कृति” नामक पुस्तिका का पाठ करने वाले के दाप-ताप-संताप को साईं बाबा कैसे हर लेंगे?

साईं बाबा को पूजने वालों को यह भी नहीं मालूम कि वैदिक कर्मफल व्यवस्था के विपरीत साईं बाबा के नाम पर चमत्कार और अन्धविश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा हैं।

साईं बाबा को उन्हीं के चरित्र लेखक ईश्वर सिद्ध करने का असफल प्रयास इस प्रकार से करते है-

“मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु और घट-घट में व्याप्त हूं। मेरे ही उदर में समस्त जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए हैं। मैं ही समस्त ब्रह्माण्ड का नियन्त्रण-कर्ता व संचालक हूं। मैं ही उत्पत्ति, स्थिति और संहार-कर्ता हूं। मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुंचा सकता। मेरे ध्यान की उपेक्षा करने वाला माया के पाश में फंस जाता है” (श्री साई सच्चरित्र, श्री साईं बाबा संस्थान, शिरडी, १९९९ ईसवी, अध्याय ३, पृष्ठ १६)।

जबकि इस कथन के विपरीत साईं बाबा के समकालीन लेखक गोविन्दराव रघुनाथ दाभोलकर (हेमाडपन्त) यह भी बताते हैं :

“श्री साईं बाबा की ईश्वर-चिन्तन और भजन में विशेष अभिरुचि थी। वे सदैव ‘अल्लाह मालिक’ पुकारते तथा भक्तों से कीर्त्तन-सप्ताह करवाते थे। •• वे ‘अल्लाह मालिक’ का सदा जिह्वा से उच्चारण किया करते थे” (श्री साईं सच्चरित्र, पृष्ठ २०, ३१)।

यहां पर प्रश्न यह उपस्थित है कि जब साईं बाबा स्वयं ही उत्पत्ति-स्थिति-संहार के कर्ता-धर्ता थे तो फिर वह “ईश्वर” कौन है जिसके चिन्तन और भजन में उनकी विशेष अभिरुचि थी !! इस प्रकार साईं बाबा ने एक ओर जहां अपने-आपको परमेश्वर बताने का दावा किया है वहां दूसरी ओर अल्लाह को “मालिक” ठहराया है !! अब साईं बाबा के अन्धभक्त बताएं कि इनमें से कौनसी बात सही है !! वस्तुतः साईं बाबा एक सामान्य मनुष्य से अधिक और कुछ नहीं थे।

वेदों की मांसाहार और नशा सम्बन्धी इस निषेधाज्ञा के विपरीत साईं बाबा मांस और नशा दोनों का सेवन करने के आदी थे। जैसा कि लिखा है-

“बाबा दिन भर अपने भक्तों से घिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मस्जिद में शयन करते थे। इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाकू, एक टमरेल, एक लम्बी कफ़नी, सिर के चारों ओर लपेटने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे” (श्री साईं सच्चरित्र, अध्याय ५, पृष्ठ ३०)।

“यदि किसी ने उनके सामने एक पैसा रक्ख दिया तो वे उसे स्वीकार करके उससे तम्बाकू अथवा तैल आदि ख़रीद लिया करते थे। वे प्रायः बीड़ी या चिलम पिया करते थे” (श्री साईं सच्चरित्र, अ• १४, पृष्ठ ८९)।

“दक्षिणा में एकत्रित राशि में से बाबा अपने लिए बहुत थोड़ा ख़र्च किया करते थे। जैसे – चिलम पीने की तम्बाकू और धूनी के लिए लकड़ियां मोल लेने के लिए आदि” (श्री साईं सच्चरित्र, अ• १४, पृष्ठ ९१)।

साईं बाबा के नशा करने की आदत के बाद अब उनके मांस खाने के विषय में लिखा जाता है :

“फ़क़ीरों के साथ वे आमिष और मछली का सेवन भी कर लेते थे। कुत्ते उनके भोजन-पात्र में मुंह डाल कर स्वतन्त्रतापूर्वक खाते थे, परन्तु उन्होंने कभी भी कोई आपत्ति नहीं की” (श्री साईं सच्चरित्र, अ• ७, पृष्ठ ४२)।

“शामा श्री साईं बाबा के अन्तरंग भक्त हैं। •• फिर बाबा ने पुनः शामा से कहा : •• मैं मस्जिद में एक बकरा हलाल करने वाला हूं। उस (हाजी सिद्दीक़ फालके) से पूछो कि उसे क्या रुचिकर होगा : बकरे का मांस, नाध या अण्डकोश” (श्री साईं सच्चरित्र, अ• ११, पृष्ठ ७२-७३)।

“तब बाबा ने शामा से बकरे की बलि के लिए कहा। वे राधाकृष्ण माई के घर जाकर एक चाकू ले आए और उसे बाबा के सामने रक्ख दिया। •• तब बाबा ने काका साहिब से कहा कि मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का कार्य करूंगा। •• जब बकरा वहां लाया जा रहा था, तभी रास्ते में गिर कर मर गया” (श्री साईं सच्चरित्र, अ• २३, पृष्ठ १३७)।

“मस्जिद के आंगन में ही एक भट्ठी बनाकर उसमें अग्नि प्रज्वलित करके हंडी के ठीक नाप से पानी भर देते थे। हंडी दो प्रकार की थी : एक छोटी और दूसरी बड़ी। एक में सौ और दूसरी में पांच सौ व्यक्तियों का भोजन तैयार हो सकता था। कभी वे मीठे चावल बनाते और कभी मांस-मिश्रित चावल (पुलाव) बनाते थे। ••

जब पूर्ण भोजन तैयार हो जाता, तब वे मस्जिद से बर्तन मंगाकर मौलवी से फ़ातिहा पढ़ने को कहते थे। फिर वे म्हालसापति तथा तात्या पाटील के प्रसाद का भाग पृथक् कर शेष भोजन ग़रीब और अनाथ लोगों को खिला कर उन्हें तृप्त करते थे” (श्री साईं सच्चरित्र, अ• ३८, पृष्ठ २३१-२३२)।

इस प्रकार जो नशा और मांसाहार मनुष्य को नरक या रसातल की ओर ले जाने वाला है, साईं बाबा न केवल स्वयं उसका सेवन करते थे बल्कि “द्वारका” नाम वाली मस्जिद में आए अपने मुरीदों को हलाल- मांस से मिश्रित और सूरा फ़ातिहा (क़ुरान १/१-७) की आयतों से भावित वह चावल इत्यादि भोजन खिलाकर उनका धर्म भ्रष्ट करने का पाप भी कमाते थे।

ऐसे दोषी मनुष्य साईं बाबा को श्रीहिन्दू देवी देवताओं के समतुल्य मंदिरों में बैठाना घोर अज्ञानता ही है।

हिन्दू समाज की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी अज्ञानता है। धार्मिक ग्रंथों के स्वाध्याय न करने की उसकी आदत के चलते यह इस अज्ञानता के दलदल में डूबता जाता हैं। वेद, दर्शन, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत आदि धर्मग्रंथों की शिक्षाओं की अनदेखी करने का परिणाम यह हैं कि हिन्दुओं के संतानें आज पीर-मजारों की कब्रों पर सर पटकती दिखती हैं अथवा साईं बाबा उर्फ़ चाँद मियां की को आराध्य बनाने में जुटी हैं। अत्यंत खेदजनक।

नोट-इस पोस्ट को इतना शेयर कीजिये कि साई बाबा की अंधभक्ति करने वालों को सद्बुद्धि मिले। वे अज्ञानता का मार्ग त्यागकर सत्य सनातन वेदों की शिक्षाओं को स्वीकार करें।

लेखक-स्वर्गीय राजिंदर सिंह